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उ꣣भे꣡ यदि꣢꣯न्द्र꣣ रो꣡द꣢सी आप꣣प्रा꣢थो꣣षा꣡ इ꣢व । म꣣हा꣡न्तं꣢ त्वा म꣣ही꣡ना꣢ꣳ स꣣म्रा꣡जं꣢ चर्षणी꣣ना꣢म् । दे꣣वी꣡ जनि꣢꣯त्र्यजीजनद्भ꣣द्रा꣡ जनि꣢꣯त्र्यजीजनत् ॥१०९०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

उभे यदिन्द्र रोदसी आपप्राथोषा इव । महान्तं त्वा महीनाꣳ सम्राजं चर्षणीनाम् । देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥१०९०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ꣣भे꣡इ꣢ति । यत् । इ꣣न्द्र । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । आ꣣पप्रा꣡थ꣢ । आ꣣ । पप्रा꣡थ꣢ । उ꣣षा꣢ । इ꣣व । महा꣡न्त꣢म् । त्वा꣣ । मही꣡ना꣢म् । स꣣म्रा꣡ज꣢म् । स꣣म् । रा꣡ज꣢꣯म् । च꣣र्षणीना꣢म् । दे꣣वी꣢ । ज꣡नि꣢꣯त्री । अ꣣जीजनत् । भद्रा꣢ । ज꣡नि꣢꣯त्री । अ꣣जीजनत् ॥१०९०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1090 | (कौथोम) 4 » 1 » 16 » 1 | (रानायाणीय) 7 » 5 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ३७९ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ वीर मानव को उद्बोधन दिया जा रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) वीर मानव ! (यत्) जो तूने (उषाः इव) उषा के समान (उभे रोदसी) आकाश-पृथिवी दोनों को (आ पप्राथ) अपने यश से पूर्ण किया हुआ है, ऐसे (महीनां महान्तम्) महानों में महान् (चर्षणीनां सम्राजम्) मनुष्यों के सम्राट् (त्वा) तुझे (देवी जनित्री) दिव्यगुणमयी माता ने (अजीजनत्) जन्म दिया है, (भद्रा जनित्री) श्रेष्ठ माता ने (अजीजनत्) जन्म दिया है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार और वीररस है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य अपनी महिमा को पहचानकर बड़े-बड़े कार्य कर सकता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३७९ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र वीरो मानव उद्बोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) वीर मानव ! (यत्) यत्, त्वम् (उषाः इव) प्रभातकान्तिरिव (उभे रोदसी) उभे द्यावापृथिव्यौ (आ पप्राथ) स्वयशसा पूरितवानसि, तादृशम् (महीनां महान्तम्) महत्त्ववतामपि महत्त्ववन्तम्, (चर्षणीनां सम्राजम्) मनुष्याणाम् अधिराजं च (त्वा) त्वाम् (देवी जनित्री) दिव्यगुणयुक्ता माता (अजीजनत्) अजनयत्, (भद्रा जनित्री) श्रेष्ठा माता (अजीजनत्) अजनयत् ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः, वीरो रसः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यः स्वमहिमानं परिचित्य महान्ति कर्माणि कर्तुं शक्नोति ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० १०।१३४।१, साम० ३७९।