सु꣣रूपकृत्नु꣢मू꣣त꣡ये꣢ सु꣣दु꣡घा꣢मिव गो꣣दु꣡हे꣢ । जु꣣हू꣢मसि꣣ द्य꣡वि꣢द्यवि ॥१०८७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे । जुहूमसि द्यविद्यवि ॥१०८७॥
सु꣣रूपकृत्नु꣢म् । सु꣣रूप । कृत्नु꣢म् । ऊ꣣त꣡ये꣢ । सु꣣दु꣡घा꣢म् । सु꣣ । दु꣡घा꣢꣯म् । इ꣣व । गोदु꣡हे꣢ । गो꣣ । दु꣡हे꣢꣯ । जु꣣हूम꣡सि꣢ । द्य꣡वि꣢꣯द्यवि । द्य꣡वि꣢꣯ । द्य꣣वि ॥१०८७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १६० क्रमाङ्क पर परमात्मा, राजा और आचार्य के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ योगमार्ग के गुरु और शिल्पकार का आह्वान किया जा रहा है।
हम (ऊतये) योगमार्ग में प्रवेश के लिए और सुरूपवान् पदार्थों की प्राप्ति के लिए (सुरूपकृत्नुम्) शुभ रूपों को अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधियों को करानेवाले गुरु को और सुन्दर रूपवान् पदार्थों के रचयिता शिल्पकार को (द्यविद्यवि) प्रतिदिन (जुहूमसि) बुलाते हैं, (गोदुहे) गोदुग्ध के इच्छुक गाय दुहनेवाले के लिए (सुदुघाम् इव) जैसे दुधारू गाय को बुलाते हैं ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
जैसे गोदुग्ध पाने के लिए गाय बुलायी जाती है, वैसे ही योगाभ्यास के लिए योगी गुरु और शिल्प की उन्नति के लिए शिल्पकार को बुलाना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १६० क्रमाङ्के परमात्मनो नृपतेराचार्यस्य च विषये व्याख्याता। अत्र योगमार्गस्य गुरुः शिल्पकारश्च आहूयते।
वयम् (ऊतये) योगमार्गे प्रवेशाय, रूपवतां पदार्थानां प्राप्तये वा। [अव धातोरर्थेषु प्रवेशावाप्ती अप्यर्थौ पठितौ।] (सुरूपकृत्नुम्) शोभनानां रूपाणां यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान-समाधीनाम् कारयितारम् इन्द्रं गुरुम्, शोभनानां रूपवतां पदार्थानां कर्तारम् इन्द्रं शिल्पकारं वा (द्यविद्यवि) दिनेदिने (जुहूमसि) आह्वयामः। कथमिव ? (गोदुहे) गोदुग्धमिच्छवे गवां दोग्ध्रे (सुदुघाम् इव) यथा सुष्ठुदोग्ध्रीं गाम् आह्वयन्ति तद्वत् ॥१॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
यथा गोदुग्धप्राप्तये गौराहूयते तथा योगाभ्यासाय योगी गुरः शिल्पोन्नतये च शिल्पकार आह्वातव्यः ॥१॥