स꣢ नो꣣ भ꣡गा꣢य वा꣣य꣡वे꣢ पू꣣ष्णे꣡ प꣢वस्व꣣ म꣡धु꣢मान् । चा꣡रु꣢र्मि꣣त्रे꣡ वरु꣢꣯णे च ॥१०८३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स नो भगाय वायवे पूष्णे पवस्व मधुमान् । चारुर्मित्रे वरुणे च ॥१०८३॥
सः । नः꣣ । भ꣡गा꣢꣯य । वा꣣य꣡वे꣢ । पू꣣ष्णे꣢ । प꣣वस्व । म꣡धु꣢꣯मान् । चा꣡रुः꣢꣯ । मि꣣त्रे꣢ । मि꣣ । त्रे꣢ । व꣡रु꣢꣯णे । च꣣ ॥१०८३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर ज्ञानरस का विषय वर्णित है।
हे ज्ञानरस ! (सः) वह (मधुमान्) मधुर तू (नः) हमारे (भगाय) सूर्य तुल्य राजा के लिए, (वायवे) गतिमान् सेनाध्यक्ष के लिए और (पूष्णे) पशुपालन, कृषि, व्यापार आदि से समाज का पोषण करनेवाले वैश्य के लिए (पवस्व) क्षरित हो और (चारुः) रमणीय तू (मित्रे) राष्ट्र के मित्र ब्राह्मण में (वरुणे च) और शत्रु-निवारक क्षत्रिय में (पवस्व) क्षरित हो ॥३॥
राष्ट्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, राजा, सेनापति, न्यायाध्यक्ष आदि और सामान्य प्रजाजन भी सभी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार ज्ञान का सञ्चय करनेवाले होवें, जिससे राष्ट्र प्रगतिपथ पर अग्रसर हो ॥३॥ इस खण्ड में गुरु-शिष्य, परमात्मा-जीवात्मा और ज्ञानरस का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥ सप्तम अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि ज्ञानरसविषय एव वर्ण्यते।
हे सोम ज्ञानरस ! (सः) असौ (मधुमान्) मधुरः त्वम् (नः) अस्माकम् (भगाय) सूर्यतुल्याय नृपतये, (वायवे) गतिमते सेनाध्यक्षाय, (पूष्णे) पशुपालनकृषिवाणिज्यादिना समाजस्य पोषकाय वैश्यजनाय च (पवस्व) प्रक्षर। अपि च (चारुः) रमणीयः त्वम् (मित्रे) राष्ट्रस्थे ब्राह्मणजने (वरुणे च) शत्रुनिवारके क्षत्रियजने चापि (पवस्व) प्रक्षर ॥३॥
राष्ट्रे ब्राह्मणक्षत्रियवैश्या नृपतिसेनापतिन्यायाध्यक्षादयः सामान्याः प्रजाजनाश्च सर्वेऽपि स्वस्वयोग्यतानुसारं ज्ञानस्य संचेतारो भवन्तु, येन राष्ट्रं प्रगतिपथमनुसरेत् ॥३॥ अस्मिन् खण्डे गुरुशिष्ययोः परमात्मजीवात्मनोर्ज्ञानरसस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥