स꣡मिन्द्रे꣢꣯णो꣣त꣢ वा꣣यु꣡ना꣢ सु꣣त꣡ ए꣢ति प꣣वि꣢त्र꣣ आ꣢ । स꣡ꣳ सूर्य꣢꣯स्य र꣣श्मि꣡भिः꣢ ॥१०८२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)समिन्द्रेणोत वायुना सुत एति पवित्र आ । सꣳ सूर्यस्य रश्मिभिः ॥१०८२॥
स꣢म् । इ꣡न्द्रे꣢꣯ण । उ꣣त꣢ । वा꣣यु꣡ना꣢ । सु꣣तः꣢ । ए꣣ति । प꣣वि꣡त्रे꣢ । आ । सम् । सू꣡र्य꣢꣯स्य । र꣣श्मि꣡भिः꣢ ॥१०८२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि आत्मा में ज्ञान कैसे उत्पन्न होता है।
(इन्द्रेण) मन से (उत) और (वायुना) प्राण से (सुतः) अभिषुत ज्ञानरस (पवित्रे) पवित्र जीवात्मा में (सम् आ एति) समागत होता है और (सूर्यस्य रश्मिभिः) सूर्य की किरणों से अथवा चक्षु की वृत्तियों से (सम्) समागत होता है ॥२॥
मनुष्य का आत्मा जिस ज्ञान को सञ्चित करता है,उसमें मन, प्राण, नेत्र की वृत्तियाँ, अग्नि, वायु, सूर्यकिरणें, गुरुजन सभी कारण बनते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथात्मनि ज्ञानं कथं जायत इत्याह।
(इन्द्रेण) मनसा (उत) अपि च (वायुना) प्राणेन (सुतः) अभिषुतो ज्ञानरसः (पवित्रे) पवित्रे जीवात्मनि (सम् आ एति) समागच्छति, किञ्च (सूर्यस्य रश्मिभिः) आदित्यस्य किरणैः यद्वा चक्षुषो वृत्तिभिः। [चक्षुरसौ आदित्यः। ऐ० आ० २।१।५।] (सम्) समागच्छति ॥२॥
मनुष्यस्यात्मा यज्ज्ञानं सञ्चिनोति तत्र मनः प्राणो नेत्रवृत्तयोऽग्निर्वायुः सूर्यरश्मयो गुरुजनाः सर्वेऽपि कारणतां प्रपद्यन्ते ॥२॥