इ꣡न्द्रा꣢येन्दो म꣣रु꣡त्व꣢ते꣣ प꣡व꣢स्व꣣ म꣡धु꣢मत्तमः । अ꣣र्क꣢स्य꣣ यो꣡नि꣢मा꣣स꣡द꣢म् ॥१०७६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्रायेन्दो मरुत्वते पवस्व मधुमत्तमः । अर्कस्य योनिमासदम् ॥१०७६॥
इ꣡न्द्रा꣢꣯य । इ꣣न्दो । मरु꣡त्व꣢ते । प꣡व꣢꣯स्व । म꣡धु꣢꣯मत्तमः । अ꣣र्क꣡स्य꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । आ꣣स꣡द꣢म् । आ꣣ । स꣡द꣢꣯म् ॥१०७६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४७२ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ गुरु-शिष्य विषय का वर्णन करते हैं।
हे (इन्दो) ज्ञानरस के भण्डार आचार्य ! (मधुमत्तमः) अतिशय मधुर आप (मरुत्वते) उत्कृष्ट प्राणवाले (इन्द्राय) मुझ शिष्य के लिए (पवस्व) ज्ञानरस प्रवाहित कीजिए। मैं (अर्कस्य) पूजनीय आपके (योनिम्) विद्यागृह अर्थात् गुरुकुल में (आसदम्) आया हूँ ॥१॥
गुरुकुल में प्रविष्ट छात्रों को विद्वान्, मधुर स्वभाववाले गुरुजन प्रेम से सब विद्याएँ प्रदान करें और शिष्य श्रद्धा से उनका सत्कार करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४७२ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषयो वर्ण्यते।
हे (इन्दो) ज्ञानरसागार आचार्य ! (मधुमत्तमः) अतिशयेन मधुरः त्वम् (मरुत्वते) उत्कृष्टप्राणवते (इन्द्राय) शिष्याय मह्यम् (पवस्व) ज्ञानरसं प्रवाहय। अहम् (अर्कस्य) पूजनीयस्य तव (योनिम्) विद्यागृहम्, गुरुकुलम् (आसदम्) आगतोऽस्मि ॥१॥
गुरुकुलं प्रविष्टेभ्यश्छात्रेभ्यो विद्वांसो मधुरस्वभावा गुरवः प्रेम्णा सर्वा विद्याः प्रयच्छेयुः, शिष्याश्च तान् श्रद्धया सत्कुर्युः ॥१॥