इ꣣दं꣡ वां꣢ मदि꣣रं꣡ मध्वधु꣢꣯क्ष꣣न्न꣡द्रि꣢भि꣣र्न꣡रः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ त꣡स्य꣢ बोधतम् ॥१०७५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इदं वां मदिरं मध्वधुक्षन्नद्रिभिर्नरः । इन्द्राग्नी तस्य बोधतम् ॥१०७५॥
इ꣣द꣢म् । वा꣣म् । मदिर꣢म् । म꣡धु꣢꣯ । अ꣡धु꣢꣯क्षन् । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । न꣡रः꣢꣯ । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । त꣡स्य꣢꣯ । बो꣣धतम् ॥१०७५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः उन्हीं को सम्बोधन किया गया है।
हे (इन्द्राग्नी) जीवात्मा और प्राण एवं राजा और सेनापति ! (वाम्) आप दोनों को लक्ष्य करके (नरः) पुरुषार्थी मनुष्यों ने (अद्रिभिः) वाणीरूपी सिलबट्टों से (इदम्) इस (मदिरम्) आनन्दजनक एवं उत्साहजनक (मधु) मधुर वीर रस को (अधुक्षन्) दुहा है। आप दोनों (तस्य) उस वीररस को (बोधतम्) पीना जानो ॥३॥
शरीर के अधिष्ठाता जीवात्मा, मन, प्राण आदि तथा राष्ट्र के अधिकारी राजा, सेनापति आदि में वीररस का संचार करके उनकी सहायता से सबको उत्कर्ष सिद्ध करना चाहिए ॥३॥ इस खण्ड में मित्र-वरुण-अर्यमा नामों से परमेश्वर-जीवात्मा-प्राण के विषय का, अन्तरात्मा के उद्बोधन का, परमात्मा से प्रार्थना का और इन्द्राग्नी नाम से जीवात्मा और प्राण एवं राजा और सेनापति के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ सप्तम अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तावेव सम्बोधयति।
हे (इन्द्राग्नी) जीवात्मप्राणौ नृपतिसेनापती वा ! (वाम्) युवाम् उद्दिश्य (नरः) पुरुषार्थिनो मनुष्याः (अद्रिभिः) वाग्रूपैः पेषणपाषाणैः (इदम्) एतत् (मदिरम्) आनन्दजनकम् उत्साहजनकं च (मधु) वीररसम् (अधुक्षन्) दुग्धवन्तः। युवाम् (तस्य) तं वीररसं (बोधतम्) पातुं जानीतम् ॥३॥
शरीराधिष्ठातृषु जीवात्ममनःप्राणादिषु राष्ट्राधिकारिषु नृपतिसेनापत्यादिषु च वीररसं सञ्चार्य तत्साहाय्येन सर्वैरुत्कर्षः साधनीयः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे मित्रवरुणार्यमनामभिः परमेश्वरजीवात्मप्राणविषयस्य, स्वान्तरात्मोद्बोधनस्य, परमात्मप्रार्थनस्य, इन्द्राग्निना च जीवात्मप्राणयोर्नृपतिसेनापत्योश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥