य꣢द्वी꣣डा꣡वि꣢न्द्र꣣ य꣢त्स्थि꣣रे꣡ यत्पर्शा꣢꣯ने꣣ प꣡रा꣢भृतम् । व꣡सु꣢ स्पा꣢र्हं꣡ तदा भ꣢꣯र ॥१०७२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यद्वीडाविन्द्र यत्स्थिरे यत्पर्शाने पराभृतम् । वसु स्पार्हं तदा भर ॥१०७२॥
यत् । वी꣣डौ꣢ । इ꣣न्द्र । य꣢त् । स्थि꣣रे꣢ । यत् । प꣡र्शा꣢꣯ने । प꣡रा꣢꣯भृतम् । प꣡रा꣢꣯ । भृ꣣तम् । व꣡सु꣢꣯ । स्पा꣣र्ह꣢म् । तत् । आ । भ꣣र ॥१०७२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तृतीय ऋचा पूर्वार्चिक में २०७ क्रमाङ्क पर परमात्मा, राजा और आचार्य को सम्बोधित की जा चुकी है। यहाँ अपने अन्तरात्मा को सम्बोधित कर रहे हैं।
हे (इन्द्र) मेरे वीर अन्तरात्मन् ! (यत्) जो धन (वीडौ) दृढ़ मनुष्य में, (यत्) जो धन (स्थिरे) अविचल मनुष्य में, (यत्) जो धन (पर्शाने) बादल के समान सींचनेवाले दानशील मनुष्य में (पराभृतम्) दूर देश से भी ले आया जाता है, (तत्) वह (स्पार्हम्) चाहने योग्य (वसु) आध्यात्मिक तथा भौतिक धन (आ भर) तू अपने पास ला, प्राप्त कर ॥३॥
संसार में दृढ़ स्वभाववाले, सैकड़ों विघ्नों से भी विचलित न किये जानेवाले परोपकारी जन अपने पराक्रम से जिस ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेते हैं, उसे मैं क्यों नहीं पा सकता। हे मेरे अन्तरात्मन् ! तू भी दृढ़, अविचल और बरसानेवाला होकर सब प्रकार का धन सञ्चित कर ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तृतीय ऋक् पूर्वार्चिके २०७ क्रमाङ्के परमात्मानं राजानमाचार्यं च सम्बोधिता। अत्र स्वान्तरात्मानं सम्बोधयति।
हे (इन्द्र) वीर मदीय अन्तरात्मन् ! (यत्) यद् वसु धनम् (वीडौ) दृढे मनुष्ये, (यत्) यद् वसु धनम् (स्थिरे) अविचले मनुष्ये, (यत्) यद् वसु धनम् (पर्शाने) मेघवत् सेचके दानशीले मनुष्ये। [पर्शान इति मेघनाम। निघं० १।१०।] (पराभृतम्) दूरदेशादपि हृतम् आनीतं भवति, (तत् स्पार्हम्) स्पृहणीयम् (वसु) आध्यात्मिकं भौतिकं च धनम् (आ भर) त्वम् उपलभस्व ॥३॥
जगति दृढस्वभावा विघ्नशतैरप्यविचाल्यमानाः परोपकारिणो जनाः स्वपराक्रमेण यदैश्वर्यं प्राप्नुवन्ति तदहं कुतो न प्राप्तुं शक्नोमि। हे मदीय अन्तरात्मन् ! त्वमपि दृढोऽविचलो वर्षकश्च भूत्वा सर्वविधमपि धनं संचिनु ॥३॥