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देवता: इन्द्रः ऋषि: त्रिशोकः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

भि꣣न्धि꣢꣫ विश्वा꣣ अ꣢प꣣ द्वि꣢षः꣣ प꣢रि꣣ बा꣡धो꣢ ज꣣ही꣡ मृधः꣢꣯ । व꣡सु꣢ स्पा꣣र्हं꣡ तदा भ꣢꣯र ॥१०७०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

भिन्धि विश्वा अप द्विषः परि बाधो जही मृधः । वसु स्पार्हं तदा भर ॥१०७०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

भि꣣न्धि꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । द्वि꣡षः꣢꣯ । प꣡रि꣢꣯ । बा꣡धः꣢꣯ । ज꣣हि꣢ । मृ꣡धः꣢꣯ । व꣡सु꣢꣯ । स्पा꣣र्ह꣢म् । तत् । आ । भ꣣र ॥१०७०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1070 | (कौथोम) 4 » 1 » 9 » 1 | (रानायाणीय) 7 » 3 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १३४ क्रमाङ्क पर परमात्मा, राजा और आचार्य को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन दे रहे हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र अर्थात् मेरे वीर अन्तरात्मन् ! तू (विश्वाः द्विषः) सब द्वेष करनेवाली शत्रु-सेनाओं को (अपभिन्धि) चीर दे, (बाधः) बाधा डालनेवाले (मृधः) हिंसकों को (परि जहि) चारों ओर नष्ट कर दे। जो (स्पाहर्म्) चाहने योग्य (वसु) दिव्य तथा भौतिक धन है, (तत्) उसका (आ भर) उपार्जन कर ॥१॥ यहाँ एक कर्ता कारक के साथ अनेक क्रियाओं का योग होने से दीपक अलङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य का अन्तरात्मा यदि प्रबुद्ध है, तो वह सब कुछ सिद्ध कर सकता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १३४ क्रमाङ्के परमात्मानं राजानमाचार्यं च संबोधिता। अत्र स्वान्तरात्मा समुद्बोध्यते ॥

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र वीर मदीय अन्तरात्मन् ! त्वम् (विश्वाः द्विषः) समस्ताः द्वेष्ट्रीः रिपुसेनाः (अपभिन्धि) अप विदारय, (बाधः) बाधकान् (मृधः) हिंसकान् (परि जहि) परितो विनाशय। यत् (स्पार्हम्) स्पृहणीयम् (वसु) दिव्यं भौतिकं च धनमस्ति (तद्) धनम् (आ भर) आहर, उपार्जय ॥१॥ अत्रैकेन कारकेणानेकक्रियायोगाद् दीपकालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यस्यान्तरात्मा चेत् प्रबुद्धस्तर्हि स सर्वं किञ्चित् साद्धुं शक्नोति ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।४५।४०, अथ० २०।४३।१, साम० १३४।