उ꣣त꣢ नो꣣ गो꣡म꣢ती꣣रि꣢षो꣣ वि꣡श्वा꣢ अर्ष परि꣣ष्टु꣡भः꣢ । गृ꣣णानो꣢ ज꣣म꣡द꣢ग्निना ॥१०६३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उत नो गोमतीरिषो विश्वा अर्ष परिष्टुभः । गृणानो जमदग्निना ॥१०६३॥
उ꣣त꣢ । नः꣣ । गो꣡म꣢꣯तीः । इ꣡षः꣢꣯ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣣र्ष । परिष्टु꣡भः꣢ । प꣣रि । स्तु꣡भः꣢꣯ । गृ꣣णानः꣢ । ज꣣म꣡द꣢ग्निना । ज꣡म꣢त् । अ꣣ग्निना ॥१०६३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर वही विषय है।
(उत) और हे सोम अर्थात् विद्वान् आचार्य ! (जमदग्निना) समित्पाणि अग्निहोत्री शिष्यवर्ग से (गृणानः) स्तुति किये जाते हुए आप (नः) हम शिष्यों को (गोमतीः) वेदवाणी से युक्त, (परिष्टुभः) सहारा देनेवाली (विश्वाः) सब (इषः) अभीष्ट अपरा तथा परा नामक विद्याएँ (अर्ष) प्रदान करो, पढ़ाओ ॥३॥
आचार्य का भली-भाँति सत्कार करके, उसके पास से अध्यात्म विज्ञान और भौतिक विज्ञान सम्पूर्ण निष्ठा के साथ ग्रहण करके, विद्वान् होकर शिष्य समाज में ज्ञान का विस्तार करें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः स एव विषय उच्यते।
(उत) अपि च, हे सोम विद्वन् आचार्य ! (जमदग्निना) समित्पाणिना प्रज्वलिताग्निना शिष्यगणेन (गृणानः) स्तूयमानः त्वम् (नः) शिष्येभ्योऽस्मभ्यम् (गोमतीः) वेदवाग्युक्ताः (परिष्टुभः) आश्रयप्रदायिनी (विश्वाः) सर्वाः (इषः) अभीष्टाः अपरापराख्याः विद्याः (अर्ष) प्रयच्छ, अध्यापय ॥३॥
आचार्यं सम्यक् सत्कृत्य तत्सकाशादध्यात्मविज्ञानानि भौतिकविज्ञानानि चापि सम्पूर्णनिष्ठया गृहीत्वा विद्वांसो भूत्वा शिष्याः समाजे ज्ञानं विस्तारयेयुः ॥३॥