अ꣣भि꣡ गव्या꣢꣯नि वी꣣त꣡ये꣢ नृ꣣म्णा꣡ पु꣢ना꣣नो꣡ अ꣢र्षसि । स꣣न꣡द्वा꣢जः꣣ प꣡रि꣢ स्रव ॥१०६२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अभि गव्यानि वीतये नृम्णा पुनानो अर्षसि । सनद्वाजः परि स्रव ॥१०६२॥
अ꣣भि꣢ । ग꣡व्या꣢꣯नि । वी꣣त꣡ये꣢ । नृ꣣म्णा꣢ । पु꣣नानः꣢ । अ꣣र्षसि । सन꣡द्वा꣢जः । स꣣न꣢त् । वा꣣जः । प꣡रि꣢꣯ । स्र꣣व ॥१०६२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में छात्र आचार्य को कह रहे हैं।
हे सोम अर्थात् विद्यारस के भण्डार आचार्य ! (वीतये) हम शिष्यों की प्रगति के लिए (गव्यानि) इन्द्रियों के (नृम्णा) बलों को (पुनानः) पवित्र करते हुए, आप (अभि अर्षसि) हमारे प्रति आते हो। वे आप (सनद्वाजः) अन्न, धन आदि देते हुए (परि स्रव) बहो, अर्थात् हमें विद्या पढ़ाओ ॥२॥
कुलपति आचार्य छात्रों के चरित्रों को पवित्र करते हुए, उन्हें अन्न-वस्त्र-बल आदि प्रदान करते हुए अगाध विद्या पढ़ाएँ ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ छात्रा आचार्यं ब्रुवन्ति।
हे सोम विद्यारसागार आचार्य ! (वीतये) शिष्याणामस्माकं प्रगतये (गव्यानि) इन्द्रियसंबन्धीनि (नृम्णा) नृम्णानि बलानि (पुनानः) पवित्रीकुर्वन् त्वम् (अभि अर्षसि) अस्मान् प्रति आगच्छसि। स त्वम् (सनद्वाजः) अन्नधनादिकं प्रयच्छन् (परिस्रव) प्रवहस्व, विद्यामध्यापयेत्यर्थः ॥२॥
कुलपतय आचार्याश्छात्राणां चरित्राणि पुनन्तस्तेभ्योऽन्नवस्त्रबलादिकं सर्वं प्रयच्छन्तोऽगाधां विद्यां तानध्यापयेयुः ॥२॥