आ꣡ ययो꣢꣯स्त्रि꣣ꣳश꣢तं꣣ त꣡ना꣢ स꣣ह꣡स्रा꣢णि च꣣ द꣡द्म꣢हे । त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति ॥१०६०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ ययोस्त्रिꣳशतं तना सहस्राणि च दद्महे । तरत्स मन्दी धावति ॥१०६०॥
आ꣢ । य꣡योः꣢꣯ । त्रि꣣ꣳश꣡त꣢म् । त꣡ना꣢꣯ । स꣣ह꣡स्रा꣢णि । च꣣ । द꣡द्म꣢꣯हे । त꣡र꣢꣯त् । सः । म꣣न्दी꣢ । धा꣣वति ॥१०६०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे पुनः आत्मा और मन का ही विषय वर्णित है।
(ययोः) दोषों का ध्वंस करनेवाले और बहुत से लाभों को देनेवाले जिन आत्मा और मन के (त्रिंशतम्) तीस (च) और (सहस्राणि) हजारों (तना) विस्तीर्ण ऐश्वर्य, हम (आदद्महे) ग्रहण कर लेते हैं, उन ऐश्वर्यों से (सः मन्दी) वह स्तोता (धावति) स्वयं को धो लेता है और (तरत्) शोक को तर जाता है, अर्थात् मुक्ति पा लेता है ॥ आत्मा और मन के तीस ऐश्वर्य इस प्रकार हैं—८ योगाङ्ग, २ अभ्यास-वैराग्य, १ प्रणवजप, १ वशीकार, १ अध्यात्मप्रसाद, ३ तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान, ४ वृत्तियाँ—मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा, ८ अणिमा आदि सिद्धियाँ, १ विवेकख्याति, १ कैवल्य। अनेक सहस्र ऐश्वर्य उन्हीं के महिमारूप हैं। आत्मा और मन को शुद्ध करके तथा उनका यथोचित उपयोग करके उपासक अगणित ऐश्वर्य प्राप्त कर सकता है, यह तात्पर्य है ॥४॥
केवल भौतिक धन ही धन नहीं है, प्रत्युत उसकी अपेक्षा अधिक महान् धन आध्यात्मिक धन है, जिसे पाने के लिए मनुष्यों को यत्न करना चाहिए ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
(ययोः) ध्वस्रयोः दोषध्वंसकयोः पुरुषन्त्योः बहुदानयोः आत्ममनसोः (त्रिंशतम्) त्रिंशत्संख्याकानि (सहस्राणि) बहुसहस्राणि (च तना) विस्तृतानि ऐश्वर्याणि। [तना इति धननामसु पठितम्। निघं० २।१०।] वयम् (आदद्महे) गृह्णीमहे, तैः ऐश्वर्यैः (सः मन्दी) असौ स्तोता (धावति) स्वात्मानं प्रक्षालयति, (तरत्) तरति च शोकम्, मुक्तो भवतीत्यर्थः ॥ आत्ममनसोः त्रिंशद् ऐश्वर्याणि तावदेवम्—८ योगाङ्गानि, २ अभ्यासवैराग्ये, १. प्रणवजपः, १ वशीकारः, १ अध्यात्मप्रसादः, ३ तपः- स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि, ४ वृत्तयः मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाः, ८ अणिमाद्याः सिद्धयः, १ विवेकख्यातिः, १ कैवल्यम्। अनेकसहस्राण्यैश्वर्याणि तु एतेषामेव महिमानः। आत्ममनसोः शोधनेन यथोचितोपयोगेन चागणि—तान्यैश्वर्याणि लब्धुं शक्नोत्युपासक इति तात्पर्यम् ॥४॥
केवलं भौतिकं धनमेव धनं नास्ति, प्रत्युत तदपेक्षया सुमहत्तरं धनमाध्यात्मिकं धनं विद्यते, यस्य प्राप्त्यै मनुष्यैर्यत्नो विधेयः ॥४॥