श्रु꣣꣬ष्ट्य꣢꣯ग्ने꣣ नव꣢स्य मे स्तो꣡म꣢स्य वीर विश्पते । नि꣢ मा꣣यि꣢न꣣स्त꣡प꣢सा र꣣क्ष꣡सो꣢ दह ॥१०६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)श्रुष्ट्यग्ने नवस्य मे स्तोमस्य वीर विश्पते । नि मायिनस्तपसा रक्षसो दह ॥१०६॥
श्रु꣣ष्टी꣢ । अ꣣ग्ने । न꣡व꣢꣯स्य । मे꣣ । स्तो꣡म꣢꣯स्य । वी꣣र । विश्पते । नि꣢ । मा꣣यि꣡नः꣢ । त꣡प꣢꣯सा । र꣣क्ष꣡सः । द꣣ह ॥१०६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में राक्षसों के विनाश की प्रार्थना की गयी है।
(श्रुष्टी) शीघ्र ही, हे (वीर) पराक्रमशाली, (विश्पते) प्रजापालक (अग्ने) तेजस्वी परमात्मन् वा राजन् ! आप (मे) मेरे (नवस्य) प्रशंसायोग्य (स्तोमस्य) आन्तरिक सद्गुणों की सेना के तथा बाह्य योद्धाओं की सेना के (तपसा) तेज से (मायिनः) मायावी, छल-कपटपूर्ण (रक्षसः) राक्षसी भावों और राक्षसजनों को (नि दह) पूर्णतः भस्म कर दीजिए ॥१०॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥१०॥
जो कोई पाप-रूप अथवा पापी-रूप मायावी राक्षस हमें सताते हैं, उन्हें हम अपनी शुभ मनोवृत्तियों से और बलवान् योद्धाओं से तथा परमात्मा और राजा की सहायता से पराजित करके आन्तरिक और बाह्य सुराज्य का उपभोग करें ॥१०॥ इस दशति में अग्नि, पवमान और अदिति नामों से परमात्मा का स्मरण होने से, परमात्मा से धन-कीर्ति आदि की याचना होने से तथा उससे शत्रु-विनाश, राक्षसदाह आदि की प्रार्थना होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥ द्वितीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ प्रथम अध्याय में ग्यारहवाँ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ रक्षसां विनाशः प्रार्थ्यते।
(श्रुष्टी२) क्षिप्रमेव। श्रुष्टी इति क्षिप्रनाम, आशु अष्टीति। निरु० ६।१३। हे (वीर) पराक्रमशालिन्, (विश्पते) प्रजापालक (अग्ने) तेजोमय परमात्मन् राजन् वा ! त्वम् (मे) मम (नवस्य) स्तुत्यस्य, प्रशंसार्हस्य। णु स्तुतौ धातोः अप् प्रत्ययः। (स्तोमस्य) आभ्यन्तरस्य सद्गुणसैन्यस्य, बाह्यस्य च योद्धृसैन्यस्य (तपसा) तेजसा (मायिनः) मायाविनः छलकपटादिपूर्णान् (रक्षसः) राक्षसभावान् राक्षसजनान् वा (नि दह) निःशेषेण भस्मीकुरु ॥१०॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥१०॥
ये केचित् पापरूपाः पापिरूपा वा मायाविनो राक्षसा अस्मानुद्वेजयन्ति तान् वयं शुभाभिः स्वमनोवृत्तिभिर्बलवद्भिर्योद्धृसंघैश्च, परमात्मनो नृपस्य च साहाय्येन पराजित्याभ्यन्तरं बाह्यं च सुराज्यमुपभुञ्जीमहि ॥१०॥ अत्र अग्नि-पवमान-अदितिनामभिः परमात्मनः स्मरणात् ततो धनकीर्त्यादियाचनाद्, रिपुविनाशराक्षसदाहादिप्रार्थनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति द्वितीये प्रपाठके प्रथमार्धे प्रथमा दशतिः ॥ इति प्रथमेऽध्याय एकादशः खण्डः ॥