वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें
देवता: पवमानः सोमः ऋषि: अवत्सारः काश्यपः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

ध्व꣣स्र꣡योः꣢ पुरु꣣ष꣢न्त्यो꣣रा꣢ स꣣ह꣡स्रा꣢णि दद्महे । त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति ॥१०५९॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

ध्वस्रयोः पुरुषन्त्योरा सहस्राणि दद्महे । तरत्स मन्दी धावति ॥१०५९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ध्व꣣स्र꣡योः꣢ । पु꣣रुष꣡न्त्योः꣢ । पु꣣रु । स꣡न्त्योः꣢꣯ । आ । स꣣ह꣡स्रा꣢णि । द꣣द्महे । त꣡र꣢꣯त् । सः । म꣣न्दी꣢ । धा꣣वति ॥१०५९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1059 | (कौथोम) 4 » 1 » 5 » 3 | (रानायाणीय) 7 » 2 » 2 » 3


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में ध्वस्र और पुरुषन्ति विशेषणों से आत्मा और मन के विषय में कहा गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

ब्रह्मानन्दरूप सोम की धारा से नहाए हुए हम (ध्वस्रयोः) दोषों का ध्वंस करनेवाले, (पुरुषन्त्योः) बहुत से लाभों को देनेवाले आत्मा और मन के (सहस्राणि) हजारों ऐश्वर्यों को (आदद्महे) ग्रहण करते हैं, क्योंकि (मन्दी) परमेश्वर का स्तोता (सः) वह आनन्द-मग्न मनुष्य (धावति) स्वयं को धो लेता है और (तरत्) दुःख-जाल को तर लेता है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

आत्मा और मन को उद्बोधन देकर लोग हजारों से भी अधिक लाभों को प्राप्त कर सकते हैं और अन्त में वे परमात्मा में मग्न होकर मोक्षपद पा लेते हैं ॥३॥ यहाँ सायणाचार्य ‘ध्वस्र’ और ‘पुरुषन्ति’ को किन्हीं विशेष राजाओं के नाम मानते हैं। तदनुसार उन्होंने इस मन्त्र का अर्थ करते हुए लिखा है कि ‘ध्वस्र कोई एक राजा था, पुरुषन्ति कोई दूसरा। उन दोनों राजाओं के सहस्रों धन हम ले लें। वह हमारे द्वारा लिया हुआ धन उत्तम हो। इस प्रकार ऋषि सोम से प्रार्थना कर रहा है।’ सायण का यह लिखना सङ्गत नहीं है, क्योंकि सृष्टि के आदि में प्रोक्त वेदों में परवर्ती इतिहास नहीं हो सकता ॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ ध्वस्रपुरुषन्तिविशेषणाभ्यामात्ममनसोर्विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

ब्रह्मानन्दरूपस्य सोमस्य धारया स्नाताः वयम् (ध्वस्रयोः२) दोषध्वंसकयोः (पुरुषन्त्योः३) बहुदानयोः आत्ममनसोः (सहस्राणि) अनेकसहस्रसंख्यकानि ऐश्वर्याणि (आ दद्महे) गृह्णीमहे, यतः (मन्दी) परमेश्वरस्य स्तोता (सः) आनन्दमग्नः जनः (धावति) स्वात्मानं प्रक्षालयति, (तरत्) दुःखजालं तरति च ॥३॥

भावार्थभाषाः -

आत्ममनसी उद्बोध्य जनाः सहस्रतोऽप्यधिकान् लाभान् प्राप्तुं शक्नुवन्ति। अन्ते च ते परमात्ममग्नाः सन्तो मोक्षपदं लभन्ते ॥३॥ अत्र सायणाचार्यो ‘ध्वस्रः, पुरुषन्तिः’ इति राजविशेषयोर्नाम्नी मन्यते। तथा च तद्व्याख्यानम्—[“ध्वस्रयोः पुरुषन्त्योः। ध्वस्रः कश्चिद् राजा, पुरुषन्तिः कश्चित्। तयोरुभयोः। अत्र इतरेतरयोगविवक्षया द्विवचनं द्रष्टव्यम्। सहस्राणि, धनानां सहस्राणि, आदद्महे वयं प्रतिगृह्णीमः। तदस्माभिः प्रतिगृहीतं धनमुत्तममस्त्विति ऋषिः सोमं प्रार्थयते इति सोमस्य स्तुतिः”।] इति। तत्तु न समञ्जसम्, सृष्ट्यादौ प्रोक्तेषु वेदेषु पश्चाद्वर्तिन इतिहासस्यासम्भवात् ॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।५८।३। २. ध्वस्राः ध्वंसिकाः इति ऋ० ४।१९।७ भाष्ये द०। ३. ‘पुरुषन्तिम्’ पुरूणां बहूनां सन्तिं विभाजितारम्—इति ऋ० १।११२।२३ भाष्ये द०।