उ꣣स्रा꣡ वे꣢द꣣ व꣡सू꣢नां꣣ म꣡र्त꣢स्य दे꣣व्य꣡व꣢सः । त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति ॥१०५८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उस्रा वेद वसूनां मर्तस्य देव्यवसः । तरत्स मन्दी धावति ॥१०५८॥
उ꣣स्रा꣢ । उ꣣ । स्रा꣢ । वे꣣द । व꣡सू꣢꣯नाम् । म꣡र्त꣢꣯स्य । दे꣣वी꣢ । अ꣡व꣢꣯सः । त꣡र꣢꣯त् । सः । म꣣न्दी꣢ । धा꣣वति ॥१०५८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि ब्रह्मानन्द-रस की धारा क्या करती है।
(देवी) सत्य, न्याय, दया आदि दिव्य गुणों से युक्त, (उस्रा) ब्रह्मानन्द-रूप सोमरस की परमेश्वररूप स्रोत से निकलती हुई धारा (मर्तस्य) मरणधर्मा मानव के (वसूनाम्) ऐश्वर्यों को (अवसः च) और रक्षा को (वेद) देना जानती है। उस धारा से (सः मन्दी) वह स्तोता (धावति) अपने अन्तरात्मा को धो लेता है और (तरत्) जन्म-मरण के बन्धन से तथा दुःखसमूह से तर जाता है ॥२॥
ब्रह्मानन्द-रस की धारा से लोग आध्यात्मिक ऐश्वर्य तथा संकटों से रक्षा पाकर सांसारिक दुःख-सागर को तर जाते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ ब्रह्मानन्दरसधारा किं करोतीत्याह।
(देवी) सत्यन्यायदयादिदिव्यगुणयुक्ता (उस्रा) ब्रह्मानन्दरूपस्य सोमरसस्य उत्स्राविणी धारा (मर्तस्य) मरणधर्मणो मानवस्य (वसूनाम्) ऐश्वर्याणाम् (अवसः) रक्षणस्य च। [वसूनि अवांसि च इति प्राप्ते द्वितीयार्थे षष्ठी।] (वेद) दातुं जानाति। तया धारया (सः मन्दी) असौ स्तोता (धावति) स्वान्तरात्मानं शोधयति, (तरत्) तरति च जन्ममरणबन्धनं दुःखसमूहं च ॥२॥
ब्रह्मानन्दरसधारया जना आध्यात्मिकमैश्वर्यं संकटेभ्यो रक्षां च प्राप्य सांसारिकं दुःखार्णवं तरन्ति ॥२॥