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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: अवत्सारः काश्यपः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति꣣ धा꣡रा꣢ सु꣣त꣡स्यान्ध꣢꣯सः । त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति ॥१०५७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

तरत्स मन्दी धावति धारा सुतस्यान्धसः । तरत्स मन्दी धावति ॥१०५७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त꣡र꣢꣯त् । सः । म꣣न्दी꣢ । धा꣣वति । धा꣡रा꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । अ꣡न्ध꣢꣯सः । त꣡र꣢꣯त् । सः । म꣣न्दी꣢ । धा꣣वति ॥१०५७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1057 | (कौथोम) 4 » 1 » 5 » 1 | (रानायाणीय) 7 » 2 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ५०० क्रमाङ्क पर ऐहिक एवं पारलौकिक उत्कर्ष के विषय में व्याख्यात हुई थी। यहाँ मोक्ष-प्राप्ति का विषय वर्णित किया जाता है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सः) वह (मन्दी) स्तुतिकर्ता मनुष्य (सुतस्य) परमेश्वर के पास से परिस्रुत होकर आये हुए (अन्धसः) ब्रह्मानन्दरूप सोमरस की (धारा) धारा से (धावति) अन्तरात्मा को धो लेता है और (तरत्) दुःखसागर को तर जाता है। सचमुच, (मन्दी सः) मुदित हुआ वह (धावति) लक्ष्य के प्रति दौड़ लगाता है और (तरत्) ब्रह्मानन्द-सागर में तैरता रहता है ॥१॥ यहाँ प्रथम चरण की तृतीय चरण में आवृत्ति होने पर पादावृत्ति यमक अलङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर के ध्यान में जो लोग मग्न हो जाते हैं, वे उसके पास से बहती हुई आनन्द की तरङ्गिणी से धोये जाकर निर्मलात्मा होते हुए त्रिविध दुःखों से छूटकर मुक्त हो जाते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५०० क्रमाङ्के ऐहिकपारलौकिकोत्कर्षविषये व्याख्याता। अत्र मोक्षप्राप्तिविषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सः) असौ (मन्दी) स्तोता। [मन्दी मन्दतेः स्तुतिकर्मणः। निरु० ४।२३।] (सुतस्य) परमेश्वरस्य सकाशात् परिसुतस्य (अन्धसः) ब्रह्मानन्दरूपस्य सोमरसस्य (धारा) धारया (धावति) अन्तरात्मानं प्रक्षालयति। [धावु गतिशुद्ध्योः, भ्वादिः।] (तरत्) तरति च दुःखसागरम्। सत्यम् (मन्दीः सः) मुदितः असौ। [मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु, भ्वादिः।] (धावति) लक्ष्यं प्रति वेगेन गच्छति, (तरत्) तरति च ब्रह्मानन्दसागरे। [यास्काचार्येण मन्त्रोऽयम् निरु० १३।६ इत्यत्र व्याख्यातः।] ॥१॥ अत्र प्रथमचरणस्य तृतीयचरणे आवृत्तौ पादावृत्तियमकालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरस्य ध्याने ये मग्ना जायन्ते ते ततः स्रवन्त्याऽनन्दस्रोतस्विन्या धौता निर्मलात्मानः सन्तस्त्रिविधेभ्योऽपि दुःखेभ्यो निर्मुच्य मुक्ता जायन्ते ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।५८।१, साम० ५००।