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त्वां꣢ य꣣ज्ञै꣡र꣢वीवृध꣣न्प꣡व꣢मान꣣ वि꣡ध꣢र्मणि । अ꣡था꣢ नो꣣ व꣡स्य꣢सस्कृधि ॥१०५५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

त्वां यज्ञैरवीवृधन्पवमान विधर्मणि । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१०५५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वा꣢म् । य꣣ज्ञैः꣢ । अ꣣वीवृधन् । प꣡व꣢꣯मान । वि꣡ध꣢꣯र्मणि । वि । ध꣣र्मणि । अ꣡थ꣢꣯ । नः । व꣡स्य꣢꣯सः । कृ꣣धि ॥१०५५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1055 | (कौथोम) 4 » 1 » 4 » 9 | (रानायाणीय) 7 » 2 » 1 » 9


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे पुनः वही विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (पवमान) जन-मानस को पवित्रता देनेवाले, क्रियाशील परमात्मन् वा राजन् ! (विधर्मणि) विशेष-धर्म-युक्त अन्तरात्मा में वा राष्ट्र में (त्वाम्) आप परमात्मा वा राजा को (यज्ञैः) उपासनायज्ञों वा राष्ट्रयज्ञों से प्रजाएँ (अवीवृधन्) बढ़ाती हैं। (अथ) अतः, आप (नः) हमें (वस्यसः) अतिशय ऐश्वर्यवान् (कृधि) कर दीजिए ॥९॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर को उपासना द्वारा अन्तरात्मा में बढ़ाकर और राजा को राष्ट्रसेवा रूप यज्ञों से राष्ट्र में बढ़ाकर उनकी सहायता से प्राप्त कीर्तियों तथा ऐश्वर्यों से प्रजाजन यशस्वी और ऐश्वर्यवान् होवें ॥९॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनः स एव विषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (पवमान) जनमानसाय पवित्रतादायक क्रियाशील परमात्मन् राजन् वा ! (विधर्मणि) विशेषधर्मयुक्ते अन्तरात्मनि राष्ट्रे वा (त्वाम्) परमात्मानं राजानं वा (यज्ञैः) उपासनायज्ञैः राष्ट्रयज्ञैर्वा, प्रजाः (अवीवृधन्) वर्धयन्ति। (अथ) अतः (नः) अस्मान् (वस्यसः) अतिशयेन वसुमतः (कृधि) कुरु ॥९॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरमुपासनयाऽन्तरात्मनि संवर्ध्य राजानं च राष्ट्रसेवारूपैर्यज्ञै राष्ट्रे संवर्ध्य ताभ्यां प्राप्तैर्यशोभिर्वसुभिश्च जना यशस्विनो वसुमन्तश्च जायन्ताम् ॥९॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।४।९।