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अ꣣꣬भ्य꣢꣯र्ष स्वायुध꣣ सो꣡म꣢ द्वि꣣ब꣡र्ह꣢सꣳ र꣣यि꣢म् । अ꣡था꣢ नो꣣ व꣡स्य꣢सस्कृधि ॥१०५३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अभ्यर्ष स्वायुध सोम द्विबर्हसꣳ रयिम् । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१०५३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣भि꣢ । अ꣣र्ष । स्वायुध । सु । आयुध । सो꣡म꣢꣯ । द्वि꣣ब꣡र्ह꣢सम् । द्वि꣣ । ब꣡र्ह꣢꣯सम् । र꣣यि꣢म् । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । व꣡स्य꣢꣯सः । कृ꣣धि ॥१०५३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1053 | (कौथोम) 4 » 1 » 4 » 7 | (रानायाणीय) 7 » 2 » 1 » 7


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर परमात्मा और राजा से प्रार्थना है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (स्वायुध सोम) शस्त्रधारी के समान शासन करने में समर्थ परमात्मन् और उत्कृष्ट शस्त्रास्त्रों से युक्त राजन् ! आप (द्विबर्हसम्) व्यवहार और परमार्थ दोनों को बढ़ानेवाले (रयिम्) ऐश्वर्य को (अभ्यर्ष) प्राप्त कराइये। (अथ) इस प्रकार (नः) हमें (वस्यसः) अतिशय ऐश्वर्यवान् (कृधि) कर दीजिए ॥७॥

भावार्थभाषाः -

भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार का धन मनुष्य के अभ्युदय और निःश्रेयस के लिए समर्थ होता है ॥७॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि परमात्मानं राजानं च प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (स्वायुध सोम) शस्त्रधर इव शासनसमर्थ परमात्मन्, उत्कृष्टशस्त्रास्त्रसम्पन्न राजन् वा ! त्वम् (द्विबर्हसम्) द्वयोः व्यवहारपरमार्थयोर्वर्धकम्२(रयिम्) ऐश्वर्यम् (अभ्यर्ष) प्रापय। (अथ) एवं च (नः) अस्मान् (वस्यसः) अतिशयेन वसुमतः (कृधि) कुरु ॥७॥

भावार्थभाषाः -

भौतिकमाध्यात्मिकं चोभयविधं धनं मनुष्यस्याभ्युदयाय निःश्रेयसाय चालं भवति ॥७॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।४।७। २. द्विबर्हाः द्वयोर्व्यवहारपरमार्थयोर्वर्धकः—इति ऋ० १।११४।१० भाष्ये द०।