त्व꣡ꣳ सूर्ये꣢꣯ न꣣ आ꣡ भ꣢ज꣣ त꣢व꣣ क्र꣢त्वा꣣ त꣢वो꣣ति꣡भिः꣢ । अ꣡था꣢ नो꣣ व꣡स्य꣢सस्कृधि ॥१०५१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वꣳ सूर्ये न आ भज तव क्रत्वा तवोतिभिः । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१०५१॥
त्वम् । सू꣡र्ये꣢꣯ । नः꣣ । आ꣢ । भ꣣ज । त꣡व꣢꣯ । क्र꣡त्वा꣢꣯ । त꣡व꣢꣯ । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । व꣡स्य꣢꣯सः । कृ꣣धि ॥१०५१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा से प्रार्थना की गयी है।
हे सोम अर्थात् जगत्स्रष्टा परमात्मन् वा राष्ट्र के स्रष्टा राजन् ! (त्वम्) आप (तव क्रत्वा) अपने कर्म वा प्रकृष्ट ज्ञान से, (तव ऊतिभिः) और अपनी रक्षाओं से (सूर्ये) सूर्यलोक के समान प्रकाशमय एवं सब उन्नतियों से युक्त राष्ट्र में (नः) हमें (आ भज) भागी बनाओ। (अथ) और उसके अनन्तर (नः) हमें (वस्यसः) अतिशय ऐश्वर्यवान् (कृधि) करो ॥५॥
यदि परमात्मा की कृपा, राजा का उद्योग, और प्रजाजनों का पुरुषार्थ हो, तो राष्ट्र में सूर्य के समान उन्नति का प्रकाश सर्वत्र फैल जाए ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानं राजानं च प्रार्थयते।
हे सोम जगत्स्रष्टः परमात्मन् राष्ट्रस्रष्टः राजन् वा ! (त्वम् तव क्रत्वा) त्वदीयेन कर्मणा प्रज्ञानेन वा, (तव ऊतिभिः) त्वदीयाभिः रक्षाभिश्च (सूर्ये) सूर्यलोके इव प्रकाशमये सर्वोन्नतियुक्ते राष्ट्रे (नः) अस्मान् (आ भज) भागिनः कुरु। (अथ) तदनन्तरं च (नः) अस्मान् (वस्यसः) अतिशयेन वसुमतः (कृधि) कुरु ॥५॥
यदि परमात्मनः कृपा नृपतेरुद्योगः प्रजाजनानां पुरुषार्थश्च स्यात् तर्हि राष्ट्रे सूर्यसम उन्नतिप्रकाशः सर्वत्र प्रसरेत् ॥५॥