स꣢ना꣣ द꣡क्ष꣢मु꣣त꣢꣫ क्रतु꣣म꣡प꣢ सोम꣣ मृ꣡धो꣢ जहि । अ꣡था꣢ नो꣣ व꣡स्य꣢सस्कृधि ॥१०४९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सना दक्षमुत क्रतुमप सोम मृधो जहि । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१०४९॥
स꣡न꣢꣯ । द꣡क्ष꣢꣯म् । उ꣣त꣢ । क्र꣡तु꣢꣯म् । अ꣡प꣢꣯ । सो꣣म । मृ꣡धः꣢꣯ । ज꣣हि । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । व꣡स्य꣢꣯सः । कृ꣣धि ॥१०४९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर जीवात्मा का ही विषय है।
हे (सोम) ऐश्वर्य उत्पन्न करने में समर्थ जीवात्मन् ! तू (दक्षम्) बल को (उत) और (क्रतुम्) कर्म तथा प्रज्ञान को (सन) प्राप्त कर। (मृधः) संग्रामकारी हिंसक काम-क्रोध आदि आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं को (अप जहि) विनष्ट कर। (अथ) इस प्रकार अपना उत्कर्ष करने के अनन्तर (नः) हमें भी (वस्यसः) अतिशय ऐश्वर्यवान् (कृधि) कर ॥३॥
मनुष्य को चाहिए कि स्वयं बल, कर्म, प्रज्ञान, सारे ही ऐश्वर्य को सञ्चित करके तथा विघ्नकारियों को पराजित करके, सबका अगुआ बनकर दूसरों का भी उपकार करे ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनर्जीवात्मन एव विषय उच्यते।
हे (सोम) ऐश्वर्योत्पादनसमर्थ जीवात्मन् ! त्वम् (दक्षम्) बलम् (उत) अपि च (क्रतुम्) कर्म प्रज्ञानं च (सन) संभजस्व। (मृधः) संग्रामकारिणः हिंसकान् कामक्रोधादीन् आन्तरान् बाह्यांश्च शत्रून् (अप जहि) विनाशय। (अथ) एवं स्वोत्कर्षसम्पादनानन्तरम् (नः) अस्मानपि (वस्यसः) अतिशयेन वसुमतः (कृधि) कुरु ॥३॥
मनुष्यः स्वयं बलं कर्म प्रज्ञानं सर्वमप्यैश्वर्यं सञ्चित्य विघ्नकारिणश्च पराजित्य सर्वाग्रणीर्भूत्वाऽन्यानप्युपकुर्यात् ॥३॥