स꣢ना꣣ ज्यो꣢तिः꣣ स꣢ना꣣ स्वा꣢३꣱र्वि꣡श्वा꣢ च सोम꣣ सौ꣡भ꣢गा । अ꣡था꣢ नो꣣ व꣡स्य꣢सस्कृधि ॥१०४८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सना ज्योतिः सना स्वा३र्विश्वा च सोम सौभगा । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१०४८॥
स꣡न꣢꣯ । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । सन꣢ । स्वः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । च꣣ । सोम । सौ꣡भ꣢꣯गा । सौ । भ꣣गा । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । व꣡स्य꣢꣯सः । कृ꣣धि ॥१०४८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे पुनः जीवात्मा को उद्बोधन है।
हे (सोम) अग्रेगामी जीवात्मन् ! तू (ज्योतिः) दिव्य प्रकाश को (सन) प्राप्त कर, (स्वः) ब्रह्मानन्द को (सन) प्राप्त कर, (विश्वा च) और सब (सौभगा) सौभाग्यों को (सन) प्राप्त कर। (अथ) और उसके अनन्तर (नः) हमें भी (वस्यसः) अतिशय ऐश्वर्यवान् (कृधि) कर ॥२॥
जीवात्मा ने सबसे उत्कृष्ट मानव-शरीर सब प्रकार की उन्नति करने के लिए प्राप्त किया है। इसलिए उसे चाहिए कि आध्यात्मिक और भौतिक सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष प्राप्त करे ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि जीवात्मा समुद्बोध्यते।
हे (सोम) अग्रगामिन् जीवात्मन् ! त्वम् (ज्योतिः) दिव्यं प्रकाशं (सन) संभजस्व, (स्वः) ब्रह्मानन्दं च (सन) संभजस्व, (विश्वा च) विश्वानि च (सौभगा) सौभगानि सौभाग्यानि (सन) संभजस्व। (अथ) तदनन्तरं च (नः) अस्मानपि (वस्यसः) वसीयसः, अतिशयेन वसुमतः (कृधि) कुरु ॥२॥
जीवात्मना सर्वोत्कृष्टो मानवदेहः सर्वविधोन्नतिकरणाय प्राप्तोऽस्ति। अतस्तेनाध्यात्मिकेषु भौतिकेषु च सर्वेष्वेव क्षेत्रेषूत्कर्षः सम्पादनीयः ॥२॥