गि꣡र꣢स्त इन्द꣣ ओ꣡ज꣢सा मर्मृ꣣ज्य꣡न्ते꣢ अप꣣स्यु꣡वः꣢ । या꣢भि꣣र्म꣡दा꣢य꣣ शु꣡म्भ꣢से ॥१०४३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)गिरस्त इन्द ओजसा मर्मृज्यन्ते अपस्युवः । याभिर्मदाय शुम्भसे ॥१०४३॥
गि꣡रः꣢꣯ । ते꣣ । इन्दो । ओ꣡ज꣢꣯सा । म꣣र्मृज्य꣡न्ते꣢ । अ꣣पस्यु꣡वः꣢ । या꣡भिः꣢꣯ । म꣡दा꣢꣯य । शु꣡म्भ꣢꣯से ॥१०४३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में उपासक को सम्बोधन किया गया है।
हे (इन्दो) परमेश्वर के उपासक मानव ! (ते) तेरी (अपस्युवः) कर्म की कामनावाली (गिरः) वाणियाँ तुझे (ओजसा) तेज से (मर्मृज्यन्ते) अधिकाधिक बार-बार अलङ्कृत करती हैं, (याभिः) जिनसे तू (मदाय) आनन्द-प्राप्ति के लिए (शुम्भसे) शोभित होता है ॥४॥
वाणी कर्म के साथ ही मनुष्य का भूषण होती है, कर्म के बिना नहीं ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथोपासकः सम्बोध्यते।
हे (इन्दो) परमेश्वरोपासक मानव ! (ते) तव (अपस्युवः) कर्मकामाः। [अपः कर्माणि आत्मनः कामयन्ते इति अपस्युवः। क्यचि उः प्रत्ययः।] (गिरः) वाचः, त्वाम् (ओजसा) तेजसा (मर्मृज्यन्ते) भृशं पुनः पुनः अलङ्कुर्वन्ति, (याभिः) गीर्भिः, त्वम् (मदाय) आनन्दाय (शुम्भसे) शोभसे ॥७॥
वाक् कर्मणैव साकं मनुष्यस्य भूषणं भवति, न निष्क्रिया ॥७॥