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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: मेधातिथिः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣡धु꣢क्षत प्रि꣣यं꣢꣫ मधु꣣ धा꣡रा꣢ सु꣣त꣡स्य꣢ वे꣣ध꣡सः꣢ । अ꣣पो꣡ व꣢सिष्ट सु꣣क्र꣡तुः꣢ ॥१०३९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अधुक्षत प्रियं मधु धारा सुतस्य वेधसः । अपो वसिष्ट सुक्रतुः ॥१०३९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡धु꣢꣯क्षत । प्रि꣡य꣢म् । म꣡धु꣢꣯ । धा꣡रा꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । वे꣣ध꣡सः꣢ । अ꣣पः꣢ । व꣣सिष्ट । सुक्र꣡तुः꣢ । सु꣣ । क्र꣡तुः꣢꣯ ॥१०३९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1039 | (कौथोम) 4 » 1 » 3 » 3 | (रानायाणीय) 7 » 1 » 3 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा के ध्यान का फल वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सुतस्य) अन्तरात्मा में प्रकट किये गए, (वेधसः) सब जगत् के विधाता सोम नामक परमात्मा की (धारा) वेदवाणी की धारा (प्रियम्) प्रिय, (मधु) मधुर आनन्दरस को (अधुक्षत) उपासक के अन्तरात्मा में दुहती है। (सुक्रतुः) शुभकर्मों का कर्ता वह परमात्मा (अपः) उपासक के कर्मों को (वसिष्ट) व्याप्त कर लेता है अर्थात् उपासक के द्वारा शुभ लोकहितकारी कर्म ही कराता है, अशुभ नहीं ॥३॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यों को योग्य है कि वे परमेश्वर के ध्यान से आनन्द की प्राप्ति और शुभकर्मों में प्रवृत्ति करें ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मध्यानस्य फलमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सुतस्य) अन्तरात्मनि प्रकटीकृतस्य (वेधसः) सर्वजगद्विधातुः सोमस्य परमात्मनः (धारा) वेदवाक्, [धारा इति वाङ्नाम। निघं० १।११।] (प्रियम्) प्रीत्यास्पदम् (मधु) मधुरम् आनन्दरसम् (अधुक्षत) उपासकस्य अन्तरात्मनि दोग्धि। (सुक्रतुः) सुकर्मा स परमात्मा (अपः) उपासकस्य कर्माणि (वसिष्ट) आच्छादयति, व्याप्नोति, तद्द्वारा शुभानि लोकहितकराण्येव कर्माणि कारयति नाशुभानीत्यर्थः। [वस आच्छादने, लडर्थे लुङि अडागमाभावश्छान्दसः] ॥३॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्याणां योग्यमस्ति यत्ते परमेश्वरस्य ध्यानेनानन्दप्राप्तिं शुभकर्मसु प्रवृत्तिं च प्राप्नुयुः ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।२।३।