शु꣣म्भ꣡मा꣢ना ऋता꣣यु꣡भि꣢र्मृ꣣ज्य꣡मा꣢ना꣣ ग꣡भ꣢स्त्योः । प꣡व꣢न्ते꣣ वा꣡रे꣢ अ꣣व्य꣡ये꣢ ॥१०३५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)शुम्भमाना ऋतायुभिर्मृज्यमाना गभस्त्योः । पवन्ते वारे अव्यये ॥१०३५॥
शु꣣म्भ꣡मा꣢नाः । ऋ꣣तायु꣡भिः꣢ । मृ꣣ज्य꣢मा꣢नाः । ग꣡भ꣢꣯स्त्योः । प꣡व꣢꣯न्ते । वा꣡रे꣢꣯ । अ꣣व्य꣡ये꣢ ॥१०३५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर ब्रह्मानन्द-रस के प्रवाह का वर्णन है।
(शुम्भमानाः) शोभित होते हुए, (ऋतायुभिः) अध्यात्म-यज्ञ के अभिलाषियों द्वारा (गभस्त्योः) मन, बुद्धि-रूप द्यावापृथिवियों में (मृज्यमानाः) अलङ्कृत किये जाते हुए ब्रह्मानन्द-रूप सोमरस (अव्यये) अविनाशी (वारे) दोषों के निवारक अन्तरात्मा में (पवन्ते) प्रवाहित हो रहे हैं ॥२॥
धर्ममेघ-समाधि में जब योगी के अन्तरात्मा में ब्रह्मानन्द के झरने झरते हैं, तब उसके मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय आदि सभी रस से सिंचे हुए के सदृश हो जाते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि ब्रह्मानन्दरसप्रवाहं वर्णयति।
(शुम्भमानाः) शोभमानाः, [शुम्भ शोभार्थे, तुदादिः।] (ऋतायुभिः) अध्यात्मयज्ञेच्छुभिः। [ऋतायुः यज्ञकामः। निरु० १०।४५। ऋतम् उपासनायज्ञमात्मनः कामयन्ते इति ऋतायवः तैः।] (गभस्त्योः) मनोबुद्धिरूपयोः द्यावापृथिव्योः (मृज्यमानाः) अलङ्क्रियमाणाः, [मृजू शौचालङ्कारयोः।] सोमाः ब्रह्मानन्दरसाः (अव्यये) अविनाशिनि (वारे) दोषाणां वारके अन्तरात्मनि (पवन्ते) प्रवहन्ति ॥२॥
धर्ममेघसमाधौ यदा योगिनोऽन्तरात्मनि ब्रह्मानन्दनिर्झरा निर्झरन्ति तदा तस्य मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादीनि सर्वाण्यपि रससिक्तानीव जायन्ते ॥२॥