अ꣡सृ꣢क्षत꣣ प्र꣢ वा꣣जि꣡नो꣢ ग꣣व्या꣡ सोमा꣢꣯सो अश्व꣣या꣢ । शु꣣क्रा꣡सो꣢ वीर꣣या꣡शवः꣢꣯ ॥१०३४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)असृक्षत प्र वाजिनो गव्या सोमासो अश्वया । शुक्रासो वीरयाशवः ॥१०३४॥
अ꣡सृ꣢꣯क्षत । प्र । वा꣣जि꣡नः꣢ । ग꣣व्या꣢ । सो꣡मा꣢꣯सः । अ꣣श्वया । शु꣣क्रा꣡सः꣢ । वी꣣रया꣢ । आ꣣श꣡वः꣢ ॥१०३४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४८२ क्रमाङ्क पर भक्तिरस के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ ब्रह्मानन्द-रस का प्रवाह वर्णित है।
(वाजिनः) बलवान्, (शुक्रासः) पवित्र, (आशवः) शीघ्रगामी (सोमासः) ब्रह्मानन्द-रस (गव्या) इन्द्रियबलों की प्राप्ति की इच्छा से, (अश्वया) प्राण-बलों की प्राप्ति की इच्छा से और (वीरया) वीर-भावों की प्राप्ति की इच्छा से (प्र असृक्षत) परमेश्वर के पास से अभिषुत किये जा रहे हैं ॥१॥
उपासक के आत्मा में जब ब्रह्मानन्द-रस की धाराएँ बहती हैं, तब मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियों आदि का सात्त्विक बल स्वयं ही उपस्थित हो जाता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४८२ क्रमाङ्के भक्तिरसविषये व्याख्याता। अत्र ब्रह्मानन्दरसप्रवाहो वर्ण्यते।
(वाजिनः) बलवन्तः, (शुक्रासः) पवित्राः, (आशवः) आशुगामिनः (सोमासः) ब्रह्मानन्दरसाः (गव्या) गवाम् इन्द्रियाणाम् इन्द्रियबलानां प्राप्तीच्छया, (अश्वया) अश्वानां प्राणानां प्राणबलानां प्राप्तीच्छया, (वीरया) वीराणां वीरभावानां प्राप्तीच्छया च (प्र असृक्षत) ब्रह्मणः सकाशात् प्रसृज्यन्ते अभिषूयन्ते ॥१॥
उपासकस्यात्मनि यदा ब्रह्मानन्दरसधाराः प्रवहन्ति तदा मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादीनां सात्त्विकं बलं स्वयमेवोपतिष्ठते ॥१॥