ई꣡डि꣢ष्वा꣣ हि꣡ प्र꣢ती꣣व्याँ꣢३ य꣡ज꣢स्व जा꣣त꣡वे꣢दसम् । च꣣रिष्णु꣡धू꣢म꣣म꣡गृ꣢भीतशोचिषम् ॥१०३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)ईडिष्वा हि प्रतीव्याँ३ यजस्व जातवेदसम् । चरिष्णुधूममगृभीतशोचिषम् ॥१०३॥
ई꣡डि꣢꣯ष्व । हि । प्र꣣तीव्य꣢꣯म् । प्र꣣ति । व्य꣢꣯म् । य꣡ज꣢꣯स्व । जा꣣तवे꣡द꣢सम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् । चरिष्णु꣡धू꣢मम् । च꣣रिष्णु꣢ । धू꣣मम् । अ꣡गृ꣢꣯भीतशोचिषम् । अ꣡गृ꣢꣯भीत । शो꣣चिषम् ॥१०३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में भौतिक अग्नि के सादृश्य से परमात्मा का विषय वर्णित है।
हे मनुष्य ! तू (प्रतीव्यम्) प्रत्येक वस्तु में व्यापक, (चरिष्णुधूमम्) जिसका धुएँ के तुल्य शत्रु-प्रकम्पक प्रभाव संचरणशील है ऐसे, (अगृभीतशोचिषम्) अप्रतिरुद्ध तेजवाले (जातवेदसम्) सद्गुणरूप दिव्य धन को उत्पन्न करनेवाले परमात्माग्नि की, (ईडिष्व हि) अवश्य ही स्तुति कर और (यजस्व) उसकी पूजा कर ॥७॥ श्लेष से भौतिक अग्नि के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥७॥
जैसे धूमशिखाओं को उठानेवाले, चमकीली ज्वालाओंवाले भौतिक अग्नि का शिल्पीजन शिल्पयज्ञों में प्रयोग करते हैं, वैसे ही प्रतापरूप धूम से शोभित, दीप्त तेजोंवाले, सत्य-अहिंसा-अस्तेय आदि दिव्य धनों के जनक परमात्माग्नि की उत्कर्ष चाहनेवाले मनुष्यों को स्तुति और पूजा करनी चाहिए ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ भौतिकाग्निसादृश्येन परमात्मविषयमाह।
हे मनुष्य ! त्वम् (प्रतीव्यम्२) प्रतिवस्तु व्यापकम्। प्रतिपूर्वाद् गतिव्याप्त्याद्यर्थकाद् वीधातोर्यत् प्रत्ययः, इकारस्य दीर्घश्छान्दसः। (चरिष्णुधूमम्) चरिष्णुः संचरणशीलः धूमः धूम इव शत्रुप्रकम्पकः प्रभावो यस्य तम्, (अगृभीतशोचिषम्) अगृभीतम् अगृहीतम् अप्रतिरुद्धं शोचिः तेजो यस्य तम्। अगृभीतेत्यत्र हृग्रहोर्भश्छन्दसि इति वार्तिकेन हस्य भः। (जातवेदसम्) जातं वेदः सद्गुणरूपं दिव्यं धनं यस्मात् तम् परमात्माग्निम् (ईडिष्व हि) स्तुति खलु, (यजस्व) पूजय च ॥७॥ श्लेषेण भौतिकाग्निपक्षेऽप्यर्थो योजनीयः ॥७॥
यथा प्रोद्यद्धूमशिखो रोचिष्णुज्वालो भौतिकाग्निः शिल्पिभिः शिल्पयज्ञेषु प्रयुज्यते तथा विलसत्प्रतापधूमो दीप्ततेजा उपासकानामन्तःकरणे दिव्यधनानां सत्याहिंसाऽस्तेयादीनां जनकः परमात्माग्निरुत्कर्षाकाङ्क्षिभिर्जनैः स्तोतव्यः पूजितव्यश्च ॥७॥