अ꣡सा꣢वि꣣ सो꣡म꣢ इन्द्र ते꣣ श꣡वि꣢ष्ठ धृष्ण꣣वा꣡ ग꣢हि । आ꣡ त्वा꣢ पृणक्त्विन्द्रि꣣य꣢꣫ꣳ रजः꣣ सू꣢र्यो꣣ न꣢ र꣣श्मि꣡भिः꣢ ॥१०२८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)असावि सोम इन्द्र ते शविष्ठ धृष्णवा गहि । आ त्वा पृणक्त्विन्द्रियꣳ रजः सूर्यो न रश्मिभिः ॥१०२८॥
अ꣡सा꣢꣯वि । सो꣡मः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । ते । श꣡वि꣢꣯ष्ठ । धृ꣣ष्णो । आ꣢ । ग꣣हि । आ꣢ । त्वा꣣ । पृणक्तु । इन्द्रिय꣢म् । र꣡जः꣢꣯ । सू꣡र्यः꣢꣯ । न । र꣣श्मि꣡भिः꣢ ॥१०२८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ३४७ पर जीवात्मा और सेनाध्यक्ष के विषय में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ परमात्मा जीवात्मा को कह रहा है।
हे (इन्द्र) सखा जीवात्मा ! मैंने (ते) तेरे लिए (सोमः) आनन्दरस (असावि) उत्पन्न किया है। (हे शविष्ठ) बलिष्ठ ! हे (धृष्णो) कामादि शत्रुओं के पराजेता ! (आगहि) आ। (इन्द्रियम्) आत्मबल (त्वा) तुझे (आ पृणक्तु) परिपूर्ण करे, (सूर्यः न) जैसे सूर्य (रश्मिभिः) किरणों से (रजः) पृथिवी, चन्द्रमा आदि लोकों को परिपूर्ण करता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
परमात्मा के साथ मैत्री करके जीवात्मा अविच्छिन्न आनन्द–रस की धारा को और अनन्त आत्मबल को पा लेता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३४७ क्रमाङ्के जीवात्मसेनाध्यक्षयोर्विषये व्याख्याता। अत्र परमात्मा जीवात्मानं ब्रूते।
हे (इन्द्र) सखे जीवात्मन् ! मया (ते) तुभ्यम् (सोमः) आनन्दरसः (असावि) अभिषुतोऽस्ति। हे (शविष्ठ) बलिष्ठ ! हे (धृष्णो) कामादिशत्रूणां धर्षणशील ! (आगहि) आगच्छ। (इन्द्रियम्) आत्मबलम् (त्वा) त्वाम् (आ पृणक्तु) आपूरयतु, (सूर्यः न) आदित्यो यथा (रश्मिभिः) किरणैः (रजः) पृथिवीचन्द्रादिकं लोकम् आपृणक्ति आपूरयति ॥१॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
परमात्मना सख्यं कृत्वा जीवात्माऽविच्छिन्नामानन्दरसधारामनन्त- मात्मबलं च लभते ॥१॥