त्वं꣡ द्यां च꣢꣯ महिव्रत पृथि꣣वीं꣡ चाति꣢꣯ जभ्रिषे । प्र꣡ति꣢ द्रा꣣पि꣡म꣢मुञ्चथाः प꣡व꣢मान महित्व꣣ना꣢ ॥१०१८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वं द्यां च महिव्रत पृथिवीं चाति जभ्रिषे । प्रति द्रापिममुञ्चथाः पवमान महित्वना ॥१०१८॥
त्वम् । द्याम् । च꣣ । महिव्रत । महि । व्रत । पृथिवी꣢म् । च꣣ । अ꣡ति꣢꣯ । ज꣣भ्रिषे । प्र꣡ति꣢꣯ । द्रा꣣पि꣢म् । अ꣣मुञ्चथाः । प꣡व꣢꣯मान । म꣣हित्वना꣢ ॥१०१८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः वही विषय है।
हे (महिव्रत) महान् कर्मों के कर्ता सोम अर्थात् जगत्स्रष्टा परमात्मन् ! (त्वम्) आप (द्यां च) द्यौ लोक को (पृथिवीं च) और भूलोक को भी (अति) लाँघकर (जभ्रिषे) सबको धारण किये हुए हो। हे (पवमान) सर्वान्तर्यामिन् आपने (महित्वना) अपनी महिमा से (द्रापिम्) रक्षा-कवच को (प्रति अमुञ्चथाः) धारण किया हुआ है, अर्थात् आपकी महिमा ही आपका रक्षा-कवच है, क्योंकि अलौकिक आपको कवच आदि भौतिक साधनों की अपेक्षा नहीं होती। अथवा, (द्रापिम्) निद्रा को (प्रति अमुञ्चथाः) छोड़ा हुआ है, अर्थात् सदैव जागरूक होने से आप निद्रा-रहित हो ॥३॥
न केवल द्युलोक तथा भूलोक को, किन्तु उनसे परे भी जो कुछ है, उस सबको भी जगदीश्वर ही धारण करता है। वह भौतिक कवच के बिना भी रक्षित रहता है और नींद के बिना भी विश्राम को प्राप्त रहता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
हे (महिव्रत) महाकर्मन् सोम जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! (त्वम् द्यां च) द्युलोकं च (पृथिवीं च) भूलोकं चापि (अति) अतिक्रम्य (जभ्रिषे) सर्वं बिभर्षि। [डुभृञ् धारणपोषणयोः बभृषे इति प्राप्ते वर्णव्यत्ययेन बकारस्य जकारः, छान्दसः इडागमश्च।] हे (पवमान) सर्वान्तर्यामिन् ! त्वम् (महित्वना) स्वमहिम्ना (द्रापिम्) कवचम् (प्रति अमुञ्चथाः२) धृतवानसि, त्वन्महिमैव तव कवचमित्यर्थः, अलौकिकस्य तव कवचादीनां भौतिकसाधनानामनपेक्षितत्वात्। यद्वा (द्रापिम्३) निद्राम् (प्रति अमुञ्चथाः) परित्यक्तवानसि, सर्वदैव जागरूकत्वात् ॥३॥
न केवलं द्यावापृथिव्यौ किन्तु तयोः परस्तादपि यत्किञ्चिदस्ति तत्सर्वं जगदीश एव धारयति। स च भौतिकं कवचं विनापि रक्षितो निद्रां विनापि च विश्रान्तः ॥३॥