वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें

त्वा꣡ꣳ रि꣢꣯हन्ति धी꣣त꣢यो꣣ ह꣡रिं꣢ प꣣वि꣡त्रे꣢ अ꣣द्रु꣡हः꣢ । व꣣त्सं꣢ जा꣣तं꣢꣫ न मा꣣त꣢रः꣣ प꣡व꣢मा꣣न वि꣡ध꣢र्मणि ॥१०१७॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

त्वाꣳ रिहन्ति धीतयो हरिं पवित्रे अद्रुहः । वत्सं जातं न मातरः पवमान विधर्मणि ॥१०१७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वाम् । रि꣣हन्ति । धीत꣡यः꣢ । ह꣡रि꣢꣯म् । प꣣वि꣡त्रे꣢ । अ꣣द्रु꣡हः꣢ । अ꣣ । द्रु꣡हः꣢꣯ । व꣡त्स꣢म् । जा꣣त꣢म् । न । मा꣣त꣡रः꣢ । प꣡वमा꣢꣯न । वि꣡ध꣢꣯र्मणि । वि । ध꣣र्मणि ॥१०१७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1017 | (कौथोम) 3 » 2 » 19 » 2 | (रानायाणीय) 6 » 6 » 4 » 2


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में जगदीश्वर का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (पवमान) पवित्रतादायक रस के भण्डार जगदीश्वर (हरिम्) पाप के हरनेवाले आपको (विधर्मणि) विशेषरूप से सद्गुणों के धारक (पवित्रे) पवित्र अन्तरात्मा में (अद्रुहः) द्रोहरहित (धीतयः) धी-वृत्तियाँ (रिहन्ति) चाटती हैं, ध्याती हैं, (जातम्) नवजात (वत्सम्) बछड़े को (मातरः न) जैसे गौ माताएँ चाटती हैं ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे धेनुएँ अपने बछड़े को जीभ से चाटती हुई आनन्द अनुभव करती हैं, वैसे ही मनुष्य परमात्मा को ध्याते हुए आनन्द से तरङ्गित होते हैं ॥२॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ जगदीश्वरं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (पवमान) पवित्रतासम्पादक रसागार जगदीश्वर ! (हरिम्) पापहारिणम् (त्वाम्) विधर्मणि विशेषेण सद्गुणानां धारके, (पवित्रे) निर्मले अन्तरात्मनि (अद्रुहः) द्रोहरहिताः (धीतयः) धीवृत्तयः (रिहन्ति) लिहन्ति, ध्यायन्ति, (जातम्) नवजातम् (वत्सम्) तर्णकम् (मातरः न) गावो यथा रिहन्ति लिहन्ति तद्वत् ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा धेनवो स्ववत्सं जिह्वया लिहन्त्य आनन्दमनुभवन्ति तथैव मनुष्याः परमात्मानं ध्यायन्त आनन्देन तरङ्गिता जायन्ते ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१००।७, ‘धीतयो’ इत्यत्र ‘मा॒तरो॒’, ‘मातरः’ इत्यत्र ‘धे॒नवः॒’ इति भेदः।