प꣡व꣢स्व꣣ वा꣡ज꣢सातये प꣣वि꣢त्रे꣣ धा꣡र꣢या सु꣣तः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢य सोम꣣ वि꣡ष्ण꣢वे दे꣣वे꣢भ्यो꣣ म꣡धु꣢मत्तरः ॥१०१६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवस्व वाजसातये पवित्रे धारया सुतः । इन्द्राय सोम विष्णवे देवेभ्यो मधुमत्तरः ॥१०१६॥
प꣡व꣢꣯स्व । वा꣡ज꣢꣯सातये । वा꣡ज꣢꣯ । सा꣣तये । पवि꣡त्रे꣢ । धा꣡र꣢꣯या । सु꣣तः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣣म । वि꣡ष्ण꣢꣯वे । दे꣣वे꣡भ्यः꣢ । म꣡धु꣢꣯मत्तरः ॥१०१६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में जगदीश्वर का आह्वान है।
हे (सोम) रस के भण्डार जगत्पति परमात्मन् ! (सुतः) आत्मा में प्रकट हुए, (मधुमत्तरः) अत्यन्त मधुर आप (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए, (विष्णवे) शरीर में व्यापक प्राण के लिए और (देवेभ्यः) इन्द्रियों के लिए (वाजसातये) बलप्रदानार्थ (पवित्रे) पवित्र हृदय में (धारया) आनन्द की धारा के साथ (पवस्व) प्रवाहित होओ ॥१॥
परमात्मा के पास से आनन्द का झरना झरने पर जीवात्मा, मन, बुद्धि आदि सभी रस से सिक्त और कृतकृत्य हो जाते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ जगदीश्वरमाह्वयति।
हे (सोम) रसागार जगत्पते परमात्मन् ! (सुतः) आत्मनि प्रकटीकृतः, (मधुमत्तरः) अतिशयेन मधुरः त्वम् (इन्द्राय) जीवात्मने, विष्णवे) देहे व्यापकाय प्राणाय, (देवेभ्यः) इन्द्रियेभ्यश्च (वाजसातये) बलप्रदानाय (पवित्रे) स्वच्छे हृदये (धारया) आनन्दधारया सह (पवस्व) प्रस्रव ॥१॥
परमात्मनः सकाशादानन्दनिर्झरे निर्झरिति सति जीवात्मामनोबुद्ध्यादयः सर्वेऽपि रससिक्ताः कृतकृत्या जायन्ते ॥१॥