उ꣡प꣢ त्रि꣣त꣡स्य꣢ पा꣣ष्यो꣢३꣱र꣡भ꣢क्त꣣ य꣡द्गुहा꣢꣯ प꣣द꣢म् । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ स꣣प्त꣡ धाम꣢꣯भि꣣र꣡ध꣢ प्रि꣣य꣢म् ॥१०१४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उप त्रितस्य पाष्यो३रभक्त यद्गुहा पदम् । यज्ञस्य सप्त धामभिरध प्रियम् ॥१०१४॥
उ꣡प꣢꣯ । त्रि꣣त꣡स्य꣢ । पा꣣ष्योः꣢ । अ꣡भ꣢꣯क्त । यत् । गु꣡हा꣢꣯ । प꣡द꣢म् । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । स꣣प्त꣢ । धा꣡म꣢꣯भिः । अ꣡ध꣢꣯ । प्रि꣣य꣢म् ॥१०१४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का विषय है।
(यत्) क्योंकि, वह पवमान सोम अर्थात् सर्वान्तर्यामी जगत्स्रष्टा परमेश्वर (पाष्योः) द्यावापृथिवी की (गुहा) गुफाओं में भी (त्रितस्य) पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ रूप तीन स्थानों में स्थित सूर्य के (पदम्) किरण-समूह को (उप अभक्त) पहुँचाता है, (अध) इस कारण (यज्ञस्य) शरीर में सङ्गत जीवात्मा के (सप्त धामभिः) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इन सात धामों से (प्रियम्) उस प्रिय परमेश्वर की पूजा करो ॥२॥
परमात्मा की कैसी अद्भुत व्यवस्था है कि सूर्य की किरणें विभिन्न लोकों के भूगर्भ में भी पहुँचकर वहाँ अपने ताप से सुवर्ण आदि धातुओं को उत्पन्न कर देती हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः परमात्मविषयमाह।
(यत्) यस्मात् सः पवमानः सोमः सर्वान्तर्यामी जगत्स्रष्टा परमेश्वरः (पाष्योः) द्यावापृथिव्योः [पष गतौ बन्धने च। पाषयतः बध्नीतः सर्वान् पदार्थान् स्वान्तराले ते पाष्यौ द्यावापृथिव्यौ।] (गुहा) गुहासु अपि (त्रितस्य) पृथिव्यन्तरिक्षद्युरूपत्रिस्थानस्य सूर्यस्य। [त्रितः त्रिस्थान इन्द्रः निरु० ९।४५।] (पदम्) किरणरूपम् (उप अभक्त) उपधत्ते, (अध) तस्मात् (यज्ञस्य) देहे संगतस्य जीवात्मनः (सप्त धामभिः) पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि मनो बुद्धिश्चेति सप्त धामानि तैः (प्रियम्) तं प्रीत्यास्पदं परमेश्वरम्, सपर्यत इति शेषः ॥२॥
परमात्मनः कीदृश्यद्भुता व्यवस्था विद्यते यत् सूर्यकिरणा विभिन्नलोकानां भूगर्भमपि प्राप्य तत्र स्वतापेन सुवर्णादिधातून् जनयन्ति ॥२॥