आ꣡ व꣢च्यस्व सुदक्ष च꣣꣬म्वोः꣢꣯ सु꣣तो꣢ वि꣣शां꣢꣫ वह्नि꣣र्न꣢ वि꣣श्प꣡तिः꣢ । वृ꣣ष्टिं꣢ दि꣣वः꣡ प꣢वस्व री꣣ति꣢म꣣पो꣢꣫ जिन्व꣣न्ग꣡वि꣢ष्टये꣣ धि꣡यः꣢ ॥१०१२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ वच्यस्व सुदक्ष चम्वोः सुतो विशां वह्निर्न विश्पतिः । वृष्टिं दिवः पवस्व रीतिमपो जिन्वन्गविष्टये धियः ॥१०१२॥
आ꣢ । व꣣च्यस्व । सुदक्ष । सु । दक्ष । चम्वोः । सु꣣तः꣢ । वि꣣शा꣢म् । व꣡ह्निः꣢꣯ । न । वि꣣श्प꣡तिः꣢ । वृ꣣ष्टि꣢म् । दि꣣वः꣢ । प꣣वस्व । रीति꣢म् । अ꣣पः꣢ । जि꣡न्व꣢꣯न् । ग꣡वि꣢꣯ष्टये । गो । इ꣣ष्टये । धि꣡यः꣢꣯ ॥१०१२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर आचार्य को कहा जा रहा है।
हे (सुदक्ष) शुभ योगबल से युक्त आचार्यप्रवर ! (चम्वोः) द्यावापृथिवी के तुल्य परा और अपरा विद्याओं में (सुतः) निष्णात आप (विशाम्) प्रजाओं के (वह्नि) भार को उठानेवाले (विश्पतिः न) प्रजापालक राजा के समान (आ वच्यस्व) प्रशंसा प्राप्त कीजिए, (गविष्टये) दिव्य प्रकाश के इच्छुक मुझ शिष्य के लिए (धियः) प्रज्ञानों को (जिन्वन्) प्रेरित करते हुए आप (दिवः) मूर्धा-लोक से (वृष्टिम्) धर्ममेघ समाधि में होनेवाली ज्योति की वर्षा को और (अपः) आनन्द-जल की (रीतिम्) धारा को (पवस्व) प्रवाहित कीजिए ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
योगविद्या में पारङ्गत आचार्य भौतिक विज्ञानों के पाण्डित्य के साथ-साथ योगविद्या का पाण्डित्य भी शिष्यों में उत्पन्न करता हुआ उनके सम्मुख मानो दिव्य ज्योति एवं ब्रह्मानन्द की धारा को प्रवाहित कर देता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरप्याचार्य उच्यते।
हे (सुदक्ष) शुभयोग बलयुक्त आचार्यप्रवर ! (चम्वोः) द्यावापृथिव्योरिव पराऽपराविद्ययोः (सुतः) निष्णातः त्वम् (विशाम्) प्रजानाम् (वह्निः) भारवाहकः (विश्पतिः न) प्रजापालकः नृपतिरिव (आ वच्यस्व) प्रशंसां लभस्व। [वच परिभाषणे, कर्मणि ‘उच्यस्व’ इति प्राप्ते सम्प्रसारणाभावश्छान्दसः।] (गविष्टये) गोकामाय दिव्यप्रकाशेच्छुकाय शिष्याय मह्यम् (धियः) प्रज्ञानानि (जिन्वन्) प्रेरयन् त्वम् (दिवः) मूर्धलोकात् (वृष्टिम्) धर्ममेघसमाधौ जायमानां ज्योतिर्वृष्टिम् (अपः) आनन्दवारिणश्च (रीतिम्) धाराम्। [री गतिरेषणयोः, क्र्यादिः।] (पवस्व) प्रवाहय ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
योगविद्यापारंगत आचार्यो भौतिकविज्ञानेषु पण्डित्येन साकं योगविद्यापाण्डित्यमपि शिष्याणां कुर्वन् तेषां पुरतो दिव्यज्योतिषो ब्रह्मानन्दस्य च धारामिव प्रवाहयति ॥२॥