अ꣣भि꣢ द्यु꣣म्नं꣡ बृ꣣ह꣢꣫द्यश꣣ इ꣡ष꣢स्पते दीदि꣣हि꣡ दे꣢व देव꣣यु꣢म् । वि꣡ कोशं꣢꣯ मध्य꣣मं꣡ यु꣢व ॥१०११॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अभि द्युम्नं बृहद्यश इषस्पते दीदिहि देव देवयुम् । वि कोशं मध्यमं युव ॥१०११॥
अ꣣भि꣢ । द्यु꣣म्न꣢म् । बृ꣣ह꣢त् । य꣡शः꣢꣯ । इ꣡षः꣢꣯ । प꣣ते । दिदीहि꣢ । दे꣣व । देवयु꣢म् । वि । को꣡श꣢꣯म् । म꣣ध्यम꣡म् । यु꣣व ॥१०११॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ५७९ क्रमाङ्क पर परमात्मा को सम्बोधन की गयी थी। यहाँ योगिराज आचार्य को सम्बोधन है
हे (इषः पते) विज्ञान के स्वामी योगिप्रवर आचार्य ! आप (द्युम्नम्) अध्यात्म तेज, (बृहद् यशः) विशाल कीर्ति, हम शिष्यों को (अभि) प्राप्त कराइये। हे (देव) योगविद्या से प्रकाशित विद्वन् ! आप (देवयुम्) परमात्मदेव के इच्छुक मुझको (दिदीहि) परमात्मा का दर्शन कराकर प्रकाशित कर दीजिए। (मध्यमं कोशम्) पञ्च कोशों में से बीच में स्थित मेरे मनोमय कोश को (वि युव) उद्घाटित कर दीजिए, जिससे मैं विज्ञानमय और आनन्दमय कोश में आरोहण कर सकूँ ॥१॥
योगविद्या में निष्णात आचार्य के अनुशासन में स्थित शिष्य सारी अध्यात्म-विद्या पाकर परमात्मा के साक्षात्कार में समर्थ हो जाता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५७९ क्रमाङ्के परमात्मानं सम्बोधिता। अत्र योगिराड् आचार्यः सम्बोध्यते।
हे (इषः पते) विज्ञानस्य स्वामिन् योगिप्रवर आचार्य ! त्वम् (द्युम्नम्) अध्यात्मं तेजः, (बृहद् यशः) विशालां कीर्तिं च (अभि) शिष्यानस्मान् अभिप्रापय। हे (देव) योगविद्यया प्रकाशित विद्वन् ! त्वम् (देवयुम्) देवं परमात्मानं कामयमानं माम्, (दिदीहि) परमात्मदर्शनेन प्रकाशय। (मध्यमं कोशम्) पञ्चकोशेषु मध्यस्थं मदीयं मनोमयं कोशम् (वि युव) समुद्घाटय, येनाहं विज्ञानमयमानन्दमयं च कोशमारोढुं प्रभवेयम् ॥१॥
योगविद्यानिष्णातस्याचार्यस्यानुशासने तिष्ठन् शिष्यः सर्वामध्यात्मविद्यामुपलभ्य परमात्मसाक्षात्कारे समर्थो जायते ॥१॥