वृ꣡षा꣢ पुना꣣न꣡ आयू꣢꣯ꣳषि स्त꣣न꣢य꣣न्न꣡धि꣢ ब꣣र्हि꣡षि꣢ । ह꣢रिः꣣ स꣢꣫न्योनि꣣मा꣡स꣢दः ॥१०००॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वृषा पुनान आयूꣳषि स्तनयन्नधि बर्हिषि । हरिः सन्योनिमासदः ॥१०००॥
वृ꣡षा꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । आ꣡यू꣢꣯ꣳषि । स्त꣣न꣡य꣢न् । अ꣡धि꣢꣯ । ब꣣र्हि꣡षि꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । सन् । यो꣡नि꣢꣯म् । आ । अ꣣सदः ॥१०००॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर परमात्मा और आचार्य का विषय है।
हे परमात्मन् वा आचार्य ! (वृषा) आनन्द, विद्या आदि की वर्षा करनेवाले आप (आयूंषि) हमारे जीवनों को (पुनानः) पवित्र करते हुए (बर्हिषि अधि) अध्यात्मयज्ञ वा विद्यायज्ञ में (स्तनयन्) उपदेश करते हुए (हरिः सन्) पाप, दुर्व्यसन, दुःख आदि को हरनेवाले होते हुए (योनिम्) आत्मारूप सदन में वा गुरुकुल-सदन में (आ असदः) विराजमान होते हो ॥२॥
परमात्मा हमारे हृदय में स्थित होकर अपनी प्रेरणा द्वारा और गुरु गुरुकुल में स्थित होकर सब विद्याओं के पढ़ाने तथा चरित्रनिर्माण के द्वारा हमारा उपकार करते हैं, इसलिए उनका पूजन और सत्कार सबको करना चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः परमात्मविषयमाचार्यविषयं चाह।
हे परमात्मन् आचार्य वा ! (वृषा) आनन्दविद्यादीनां वर्षकः त्वम् (आयूंषि) अस्माकं जीवनानि (पुनानः)पवित्रयन्, (बर्हिषि अधि) अध्यात्मयज्ञे विद्यायज्ञे वा (स्तनयन्) उपदिशन्, (हरिः सन्) पापदुर्व्यसनदुःखादीनां हर्ता सन् (योनिम्) आत्मसदनं गुरुकुलगृहं वा (आ असदः) आसीदसि ॥२॥
परमात्माऽस्माकं हृदये स्थितः स्वप्रेरणया गुरुश्च गुरुकुले स्थितः सकलविद्याध्यापनेन चरित्रनिर्माणेन चास्मानुपकुरुतोऽतस्तयोः पूजनं सत्कारश्च सर्वैर्विधेयम् ॥२॥