पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दुः) प्रकाशस्वरूप परमात्मा (चारु) सुन्दर (ऋतम्) प्रकृतिरूपी सत्य को (भरत्) धारण किये हुए है, वह प्रकृतिरूपी सत्य (सुभृतम्) भली-भाँति सबकी तृप्ति का कारण है, उक्त परमात्मा (रयीणाम्) धनों का (पतिः) स्वामी है और (द्विता) जीव और प्रकृतिरूपी द्वैत के लिये (भुवत्) स्वामीरूप से विराजमान है, (उत) और (मर्त्यानाम्) साधारण मनुष्यों का और (देवानाम्) विद्वानों का (राजा) राजा है (नृचक्षाः) शुभाशुभ कर्मों का द्रष्टा है तथा (पवित्रेभिः) अपनी पवित्र शक्तियों से (पवमानः) पवित्रता देनेवाला है ॥२४॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा ने प्रकृतिरूपी परिणामिनित्य और जीवरूपी कूटस्थनित्य द्वैत को धारण किया है। इस प्रकार जीव और प्रकृति का परमात्मा से भेद है, इस विषय का वर्णन वेद के कई एक स्थानों में अन्यत्र भी पाया जाता है। जैसा कि “न तं विदाथ य इमा जजानान्यद् युष्माकमन्तरं बभूव।” यजुर्वेद १७।३। तुम उसको नहीं जानते, जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है, वह तुम से भिन्न है। इस मन्त्र में द्वैतवाद का वर्णन स्पष्ट रीति से पाया जाता है ॥२४॥