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जा॒येव॒ पत्या॒वधि॒ शेव॑ मंहसे॒ पज्रा॑या गर्भ शृणु॒हि ब्रवी॑मि ते । अ॒न्तर्वाणी॑षु॒ प्र च॑रा॒ सु जी॒वसे॑ऽनि॒न्द्यो वृ॒जने॑ सोम जागृहि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

jāyeva patyāv adhi śeva maṁhase pajrāyā garbha śṛṇuhi bravīmi te | antar vāṇīṣu pra carā su jīvase nindyo vṛjane soma jāgṛhi ||

पद पाठ

जा॒याऽइ॑व । पत्यौ॑ । अधि॑ । शेव॑ । मं॒ह॒से॒ । पज्रा॑याः । ग॒र्भ॒ । शृ॒णु॒हि । ब्रवी॑मि । ते॒ । अ॒न्तः । वाणी॑षु । प्र । चा॒र॒ । सु । जी॒वसे॑ । अ॒नि॒न्द्यः । वृ॒जने॑ । सो॒म॒ । जा॒गृ॒हि॒ ॥ ९.८२.४

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:82» मन्त्र:4 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:9» अनुवाक:4» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

अब परमात्मा सदाचार का उपदेश करता है।

पदार्थान्वयभाषाः - (गर्भ) हे गर्भ ! हे सद्गुणों के ग्रहण करनेवाले जीवात्मन् ! (ते) तुमको (ब्रवीमि) मैं कहता हूँ कि (शृणुहि) तुम सुनो (पज्रायाः) जिस प्रकार पृथिवी की (पत्यौ, अधि) पर्जन्यरूप पति में अत्यन्त प्रीति होती है (जाया, इव) जैसे कि सदाचारिणी स्त्री की अपने पति में प्रीति होती है, वैसे ही सब स्त्रियों को अपने-अपने पतियों में प्रीति करनी चाहिए। ऐसा करने पर (शेव मंहसे) प्रत्येक अधिकारी के लिये सुख की प्राप्ति होती है। (अनिन्द्यः) सब दोषों से दूर होकर (वृजने) अपने लक्ष्यों में सावधान होकर (सोम) हे सोमस्वभाव जीवात्मन् ! (जागृहि) तुम जागो और (अन्तर्वाणीषु) विद्यारूपी वाणी में (प्रचरासु) जो सबमें प्रचार पाने योग्य है, उसमें (जीवसे) अपने जीने के लिये जागृति को धारण करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करता है कि हे जीव ! तुमको अपने कर्तव्य में सदैव जागृत रहना चाहिये। जो पुरुष अपने कर्तव्य में नहीं जागता, उसका संसार में जीना निष्फल है। यहाँ सोम शब्द का अर्थ जीवात्मा है। जैसे कि “स्याच्चैकस्य ब्रह्मशब्दवत्” ब्र० सू० २।३।५॥ यहाँ ब्रह्मसूत्र के अनुसार प्रकरणभेद में अर्थ का भेद हो जाता है, इसी प्रकार यहाँ शिक्षा देने के प्रकरण से सोम नाम जीवात्मा का है ॥४॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मा शीलमुपदिशति।

पदार्थान्वयभाषाः - (गर्भ) गृह्णातीति गर्भः, हे सद्गुणग्राहिन् जीवात्मन् ! (ते) त्वां (ब्रवीमि) कथयामि। त्वं (शृणुहि) शृणु (पज्रायाः) यथा पृथिव्याः (पत्यौ, अधि) पर्जन्यरूपपत्यौ अतिप्रीतिर्भवति। (जाया इव) यथा साध्वी स्त्री स्वपतिं प्रीणयति तथा सर्वाभिः स्त्रीभिः कर्तव्यम् एवं कृते (शेव मंहसे) प्रत्यधिकारिभ्यः सुखप्राप्तिर्भवति। (अनिन्द्यः) सर्वदोषपरित्यक्तः (वृजने) स्वलक्ष्येषु सावधानीभूय (सोम) हे सौम्यस्वभाव जीवात्मन् ! (जागृहि) जागृहि। अथ च (अन्तर्वाणीषु) विद्यारूपवाणीषु (प्रचरासु) सर्वत्र व्याप्तासु (जीवसे) स्वजीवनाय (प्रचर) प्रकर्षेण जागृहि ॥४॥