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पा॒व॒मा॒नीर्यो अ॒ध्येत्यृषि॑भि॒: सम्भृ॑तं॒ रस॑म् । तस्मै॒ सर॑स्वती दुहे क्षी॒रं स॒र्पिर्मधू॑द॒कम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pāvamānīr yo adhyety ṛṣibhiḥ sambhṛtaṁ rasam | tasmai sarasvatī duhe kṣīraṁ sarpir madhūdakam ||

पद पाठ

पा॒व॒मा॒नीः । यः । अ॒धि॒ऽएति॑ । ऋषि॑ऽभिः॒ । सम्ऽभृ॑तम् । रस॑म् । तस्मै॑ । सर॑स्वती । दु॒हे॒ । क्षी॒रम् । स॒र्पिः । मधु॑ । उ॒द॒कम् ॥ ९.६७.३२

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:67» मन्त्र:32 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:18» मन्त्र:7 | मण्डल:9» अनुवाक:3» मन्त्र:32


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो जन (पावमानीः) परमेश्वर-स्तुतिरूप ऋचाओं को (अध्येति) पढ़ता है, (तस्मै) उसके लिए (ऋषिभिः) मन्त्रद्रष्टाओं से (सम्भृतं) स्पष्टीकृत (रसं) रस का और (क्षीरं सर्पिर्मधूदकम्) दूध घी मधु और जल का (सरस्वती) ब्रह्मविद्या (दुहे) दोहन करती है ॥३२॥
भावार्थभाषाः - जो लोग परमात्मा के शरणागत होते हैं, उनके लिए मानो (सरस्वती) ब्रह्मविद्या स्वयं दुहनेवाली बनकर दूध घी मधु और नाना प्रकार के रसों का दोहन करती है। वा यों कहो माता के समान (सरस्वती) विद्या नाना प्रकार के रसों को अपने विज्ञानमय स्तनों से पान कराती है ॥३२॥ यह ६७ वाँ सूक्त और १८ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) यो जनः (पावमानीः) जगदीश्वरस्तवनरूपा ऋचः (अध्येति) अधीते (तस्मै) तस्मै (ऋषिभिः) मन्त्रदर्शिभिः (सम्भृतम्) सम्पादितं (रसम्) रसं तथा (क्षीरं सर्पिर्मधूदकम्) दुग्धघृतजलानि (सरस्वती) ब्रह्मविद्या (दुहे) दोग्धि ॥३२॥ इति सप्तषष्टितमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥