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असृ॑ग्रन्दे॒ववी॑तये वाज॒यन्तो॒ रथा॑ इव ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asṛgran devavītaye vājayanto rathā iva ||

पद पाठ

असृ॑ग्रन् । दे॒वऽवी॑तये । वा॒ज॒ऽयन्तः॑ । रथाः॑ऽइव ॥ ९.६७.१७

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:67» मन्त्र:17 | अष्टक:7» अध्याय:2» वर्ग:16» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:3» मन्त्र:17


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (देववीतये) देवमार्ग की प्राप्ति के लिए (वाजयन्तः) बलवाले (रथा इव) रथों की तरह उद्योगी लोग (असृग्रन्) रचे जाते हैं ॥१७॥
भावार्थभाषाः - “आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु” कठ. १।२।३। इस वाक्य में जैसे शरीर को रथ बनाया है, इसी प्रकार यहाँ भी रथ का दृष्टान्त है। तात्पर्य यह है कि जिन पुरुषों के शरीर दृढ़ होते हैं, वा यों कहो कि परमात्मा पूर्वकर्मानुसार जिन पुरुषों के शरीरों को दृढ़ बनाता है, वे कर्मयोग के लिए अत्यन्त उपयोगी होते हैं ॥१७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (देववीतये) देवमार्गावाप्तये (वाजयन्तः) बलवन्तः (रथा इव) रथवद् उद्योगिनः (असृग्रन्) विरच्यन्ते ॥१७॥