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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: उचथ्यः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

प्र॒स॒वे त॒ उदी॑रते ति॒स्रो वाचो॑ मख॒स्युव॑: । यदव्य॒ एषि॒ सान॑वि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prasave ta ud īrate tisro vāco makhasyuvaḥ | yad avya eṣi sānavi ||

पद पाठ

प्र॒ऽस॒वे । ते॒ । उत् । ई॒र॒ते॒ । ति॒स्रः । वाचः॑ । म॒ख॒स्युवः॑ । यत् । अव्ये॑ । एषि॑ । सान॑वि ॥ ९.५०.२

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:50» मन्त्र:2 | अष्टक:7» अध्याय:1» वर्ग:7» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब आप (मखस्युवः अव्ये सानवि एषि) यज्ञकर्ताओं को रक्षणीय उच्च यज्ञस्थलों में प्राप्त होते हैं, तो वह ऋत्विग् लोग (ते प्रसवे) आपके प्रादुर्भूत होने से (तिस्रः वाचः उदीरते) ज्ञान कर्म और उपासना विषयक तीनों वाणियों का उच्चारण करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा का आविर्भाव और तिरोभाव वास्तव में नहीं होता; क्योंकि वह कूटस्थ नित्य अर्थात् एकरस सदा आविनाशी है। उसका आविर्भाव तिरोभाव उसके कीर्तनप्रयुक्त कहा जा सकता है। अर्थात् जहाँ उसका कीर्तन होता है, उसका नाम आविर्भाव है और जहाँ उसका अकीर्तन है वहाँ तिरोभाव है। उक्त आविर्भाव तिरोभाव मनुष्य के ज्ञान के अभिप्राय से है। अर्थात् ज्ञानियों के हृदय में उसका आविर्भाव है और अज्ञानियों के हृदय में तिरोभाव है ॥२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यदा भवान् (मखस्युवः अव्ये सानवि एषि) यज्ञकारिणां गोपनीयोच्चयज्ञस्थलेषु प्राप्तो भवति तदा ते ऋत्विजः (ते प्रसवे) भवदाविर्भावेन (तिस्रः वाचः उदीरते) ज्ञानकर्मोपासनाविषयिणीनां तिसृणां वाचामुच्चारणं कुर्वन्ति ॥२॥