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उ॒भा दे॒वा नृ॒चक्ष॑सा॒ होता॑रा॒ दैव्या॑ हुवे । पव॑मान॒ इन्द्रो॒ वृषा॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ubhā devā nṛcakṣasā hotārā daivyā huve | pavamāna indro vṛṣā ||

पद पाठ

उ॒भा । दे॒वा । नृ॒ऽचक्ष॑सा । होता॑रा । दैव्या॑ । हु॒वे॒ । पव॑मानः । इन्द्रः॑ । वृषा॑ ॥ ९.५.७

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:5» मन्त्र:7 | अष्टक:6» अध्याय:7» वर्ग:25» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) ‘इरामनाद्यैश्वर्य्यं ददातीतीन्द्रः परमात्मा’ जो इरा अन्नादि ऐश्वर्यों को दे, उसका नाम इन्द्र है और (वृषा) वह इन्द्ररूप परमात्मा ‘वर्षतीति वृषा’ जो सब कामनाओं को देनेवाला है (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाला है, उस परमात्मा को (उभा) दोनों (देवा) दिव्य शक्तियोंवाले जो कर्मयोग और ज्ञानयोग हैं, (नृचक्षसा) और ईश्वर के साक्षात् करानेवाले (होतारा) अपूर्व सामर्थ्य देनेवाले ज्ञान तथा कर्म द्वारा (दैव्या) जो दिव्य शक्तिसम्पन्न हैं, उनसे मैं (हुवे) परमात्मा का साक्षात्कार करता हूँ ॥७॥
भावार्थभाषाः - ज्ञानयोगी और कर्मयोगी पुरुष जैसा परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है, इस प्रकार अन्य कोई भी नहीं कर सकता, क्योंकि कर्म द्वारा मनुष्य शक्ति बढ़ा कर ईश्वर की दया का पात्र बनता है और ज्ञान द्वारा उसका साक्षात्कार करता है। इसी अभिप्राय से “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा वृणुते तनूं स्वाम्” कठ. २।२३ ॥ अर्थात् बहुत पढ़ने-पढ़ाने से परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता, किन्तु जब पुरुष सत्कर्मी बनकर अपने आपको ईश्वर के ज्ञान का पात्र बनाता है, तो वह उसको लाभ करता है। पात्र से तात्पर्य यहाँ अधिकारी का है। वह अधिकारी ज्ञान तथा कर्म दोनों से उत्पन्न होता है, केवल ज्ञान से नहीं, इसका नाम समसमुच्चय है अर्थात् ज्ञानयोग तथा कर्मयोग दोनों साधनों से सम्पन्न होने पर जिज्ञासु परमात्मा का लाभ करता है, अन्यथा नहीं ॥ जिन लोगों ने क्रमसमुच्चय मानकर केवल ज्ञान की ही मुख्यता सिद्ध की है, उनके मत में वेद का कोई प्रमाण ऐसा नहीं मिलता, जो कर्म से ज्ञान को बड़ा व मुख्य सिद्ध करे, क्योंकि “कुर्वन्नेवेह कर्माणि” यजुः ४०।२ इत्यादि मन्त्रों में कर्म का वर्णन यावदायुष कर्तव्यत्वेन वर्णन किया है और जो “तमेव विदित्वाति मृत्युमेति” यजुः ३१।१८। इस प्रमाण को देकर कर्म की मुख्यता का खण्डन करते हैं, सो ठीक नहीं, क्योंकि इसमें भी विदित्वा और एति ये दोनों क्रिया हैं अर्थात् उसको जानकर प्राप्त होते हैं, ये भी दोनों क्रिया हैं, इससे सिद्ध है कि जानना भी एक प्रकार की क्रिया ही है, इसलिये ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम् ऐसी व्युत्पत्ति करने पर ज्ञान भी एक कर्म की विशेष अवस्था ही सिद्ध होता है, कुछ भिन्न वस्तु नहीं। इसी अभिप्राय से “न तस्य कार्य्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते। परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च” श्वे. ६।८। इत्यादि उपनिषद् वाक्यों में क्रिया की प्रधानता पाई जाती है, क्योंकि “ज्ञानबलाभ्यां सहिता क्रिया ज्ञानबलक्रिया” है और व्याकरण का सामान्य नियम ये पाया जाता है कि अप्रधान में तृतीया होती है और ज्ञानबल में तृतीया है, इसलिये क्रिया से उक्त वाक्य में कर्मप्रधानता पाई जाती है। अथवा यों कहो कि “एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति” सांख्ययोग अर्थात् ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों सूक्ष्म विचार करने में एक ही है अर्थात् अवबोधात्मक कर्म का नाम ज्ञान है और केवल अनुष्ठानात्मक कर्म का नाम कर्म है और जो मुक्ति का साक्षात् साधन अवबोधात्मक कर्म है, इसलिये वहाँ भी ज्ञान कर्म का समुच्चय है अर्थात् मिलाप है, दोनों मिलकर ही मुक्ति के साधन हैं, एक नहीं ॥७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) अन्नाद्यैश्वर्यस्य दाता परमेश्वरः (वृषा) सर्वकामप्रदः (पवमानः) यः सर्वस्य पवित्रकारकः तम् (उभा) उभौ (देवा) दिव्यशक्तिशालिनौ ज्ञानयोगकर्मयोगौ (नृचक्षसा) ईश्वरप्रत्यक्षकारकौ (होतारा) अद्भुतसामर्थ्यप्रदौ (दैव्या) यौ च दिव्यशक्तिसम्पन्नौ स्तः ताभ्यामहम् (हुवे) ईश्वरं साक्षात्करोमि ॥७॥