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त्वं सो॑म प॒णिभ्य॒ आ वसु॒ गव्या॑नि धारयः । त॒तं तन्तु॑मचिक्रदः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ soma paṇibhya ā vasu gavyāni dhārayaḥ | tataṁ tantum acikradaḥ ||

पद पाठ

त्वम् । सो॒म॒ । प॒णिऽभ्यः॑ । आ । वसु॑ । गव्या॑नि । धा॒र॒यः॒ । त॒तम् । तन्तु॑म् । अ॒चि॒क्र॒दः॒ ॥ ९.२२.७

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:22» मन्त्र:7 | अष्टक:6» अध्याय:8» वर्ग:12» मन्त्र:7 | मण्डल:9» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (त्वम्) आप (पणिभ्यः) दुष्टों से (वसु गव्यानि) सम्पूर्ण पृथिवीसम्बन्धी रत्नों का (आ धारयः) अच्छी प्रकार ग्रहण करते हो और (ततम् तन्तुम्) बढ़े हुए कर्मात्मक यज्ञ का (अचिक्रदः) प्रचार करते हो ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस सूक्त की समाप्ति करते हुए अर्थात् इस अगाध रचियता का वर्णन करते हुए परमात्मा रुद्ररूप का वर्णन करके इस सूक्त का उपसंहार करते हैं ‘रोदयति राक्षसानिति रुद्रः’ जो अन्यायकारी राक्षसों को रुला दे, उसका नाम यहाँ रुद्र है। वह रूद्ररूप परमात्मा अन्यायकारी दुष्ट दस्युओं से धन जन और राज्य श्री का अपहरण कर लेता है और न्यायकारी दान्त शान्त देवताओं को प्रदान कर देता है, इसी का नाम देवासुर-संग्राम है और इसी का नाम दैवी और आसुरी सम्पति है।देवासुर संग्राम है और इसी का नाम दैवी और आसुरी सम्पत्ति है। यह व्यवहार परमात्मा की विविध रचना में घटीयन्त्र के समान सदैव होता रहता है। जिस तरह घटीयन्त्र अर्थात् रहट के पात्र जो कभी भरे हुए होते हैं, वे ही ऊँचे चढ़ कर गर्व करते हुए सर्वथा रीते हो जाते हैं और जो रीते हो जाते हैं, वे ही विनय और नम्रता करते हुए भर जाते हैं अर्थात् परिपूर्ण हो जाते हैं वेही नियम और नम्रता करते हुए भर जाते हैं अर्थात् परिपूर्ण हो जाते हैं, इस लिए सदैव परमात्मा की विनयभाव से पूर्ण होने की अभिलाषा प्रत्येक अभ्युदयाभिलाषी को करनी चहिये ॥७॥ यह बाईसवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (त्वम्) भवान् (पणिभ्यः) दुष्टेभ्यः (वसु गव्यानि) अखिलपार्थिवरत्नानि (आ धारयः) सम्यक् आदत्ते तथा (ततम् तन्तुम्) वर्धितं कर्मरूपयज्ञं (अचिक्रदः) प्रख्यापयति ॥७॥ द्वाविंशं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥