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स॒प्त दिशो॒ नाना॑सूर्याः स॒प्त होता॑र ऋ॒त्विज॑: । दे॒वा आ॑दि॒त्या ये स॒प्त तेभि॑: सोमा॒भि र॑क्ष न॒ इन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sapta diśo nānāsūryāḥ sapta hotāra ṛtvijaḥ | devā ādityā ye sapta tebhiḥ somābhi rakṣa na indrāyendo pari srava ||

पद पाठ

स॒प्त । दिशः॑ । नाना॑ऽसूर्याः । स॒प्त । होता॑रः । ऋ॒त्विजः॑ । दे॒वाः । आ॒दि॒त्याः । ये । स॒प्त । तेभिः॑ । सो॒म॒ । अ॒भि । र॒क्ष॒ । नः॒ । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥ ९.११४.३

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:114» मन्त्र:3 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:28» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

अब मुक्त पुरुष की अवस्था का निरूपण करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - मुक्त पुरुष के लिये (सप्त, दिशः) भूरादि सातों लोक (नानासूर्याः) नाना प्रकार के दिव्य प्रकाशवाले हो जाते हैं और (सप्त) इन्द्रियों के सातों छिद्र प्राणों की गति द्वारा (होतारः) होता तथा (ऋत्विजः) ऋत्विक् हो जाते हैं, (ये, सप्त, देवाः) प्रकृति के महत्तत्त्वादि सात कार्य्य उसके लिये मङ्गलमय होते हैं, (आदित्याः) सूर्य्य सुखप्रद होता है, (तेभिः) उक्त शक्तियों द्वारा मुक्त पुरुष यह प्रार्थना करता है कि (सोम) हे सोम ! (नः) हमारी (अभि, रक्ष) रक्षा कर। (इन्दो) हे प्राणप्रद ! (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिये आप (परि, स्रव) सुधा की वृष्टि करें ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में मुक्त पुरुष की विभूति का वर्णन किया गया है कि उसकी सब लोकों में दिव्य दृष्टि हो जाती है। “दिशा” शब्द का तात्पर्य यहाँ लोक में है और वह भूः, भुवः तथा स्वरादि सात लोक हैं अर्थात् विकृतिरूप से कार्य्य और प्रकृतिरूप से जो कारण हैं, वे सातों अखण्डनीय शक्तियें उसके लिये मङ्गलमय होती हैं ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - मुक्तपुरुषाय  (सप्त, दिशः)  भूरादयः  सप्तलोकाः  (नानासूर्याः) नानाविधदिव्यप्रकाशवन्तो  भवन्ति  (सप्त)  इन्द्रियाणां सप्तछिद्राणि प्राणगतिद्वारा  (होतारः)  होतारो भवन्ति,  तथा  च  (ऋत्विजः) ऋत्विजोऽपि भवन्ति  (ये, सप्त, देवाः) यानि  प्रकृतेर्महत्तत्त्वादीनि सप्तकार्याणि तानि मङ्गलप्रदानि भवन्ति (आदित्याः) सूर्य्यः सुखप्रदोभवति (तेभिः) तैः शक्तिकार्य्यैः (सोम)  हे सोम ! (नः)  अस्मान् (अभि, रक्ष)  सर्वतः  परिपालय (इन्दो)  हे प्राणप्रद ! (इन्द्राय) कर्मयोगिने (परि, स्रव) सुधावृष्टिं कुरु ॥३॥