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पु॒नाति॑ ते परि॒स्रुतं॒ सोमं॒ सूर्य॑स्य दुहि॒ता । वारे॑ण॒ शश्व॑ता॒ तना॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

punāti te parisrutaṁ somaṁ sūryasya duhitā | vāreṇa śaśvatā tanā ||

पद पाठ

पु॒नाति॑ । ते॒ । प॒रि॒ऽस्रुत॑म् । सोम॑म् । सूर्य॑स्य । दु॒हि॒ता । वारे॑ण । शश्व॑ता । तना॑ ॥ ९.१.६

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:1» मन्त्र:6 | अष्टक:6» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

अब रूपकालङ्कार से श्रद्धा को सूर्य्य की पुत्रीरूप से वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (ते) तुम्हारे (परिस्रुतम्) जिसका सर्वत्र प्रभाव फैल रहा है, ऐसे (सोमम्) सौम्यस्वभाव को (सुर्य्यस्य दुहिता) सूर्य्य की पुत्री (पुनाति) पवित्र करती है और (वारेण) बाल्यपन से (शश्वता) निरन्तर (तना) शरीर से पवित्र करती है ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष श्रद्धा द्वारा ईश्वर को प्राप्त होता है, वह मानों प्रकाश की पुत्री द्वारा अपने सौम्यस्वभाव को बनाता है। जिस प्रकार सूर्य्य की पुत्री उषा मनुष्यों के हृदय में आह्लाद उत्पन्न करती है, इसी प्रकार जिन मनुष्यों के ह्रदय में श्रद्धा देवी का निवास है, वे लोग उषा देवी के समान सबके आह्लादजनक सौम्यस्वभाव को उत्पन्न करते हैं ॥ कई एक लोग इसके ये अर्थ करते हैं कि सूर्य्य की पुत्री कोई व्यक्तिविशेष श्रद्धा थी, यह अर्थ वेद के आशय से सर्वथा विरुद्ध है, क्योंकि उसका सौम्यस्वभाव के साथ क्या सम्बन्ध ? यहाँ स्वभाव के साथ उसी श्रद्धा देवी का सम्बन्ध है, जो मनुष्य के शील को उत्तम बनाती है ॥६॥
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आर्यमुनि

अथ रूपकालङ्कारेण श्रद्धां सूर्य्यस्य पुत्रीरूपेण वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (ते) तव (परिस्रुतम्) सर्वत्र विस्तृतप्रभावम् (सोमम्) सौम्यस्वभावम् (सूर्य्यस्य दुहिता) सूर्य्यस्य पुत्री (पुनाति) पवित्रयति (वारेण) बाल्यादारभ्य (शश्वता) निरन्तरम् (तना) शरीरेण पुनाति ॥६॥