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ये वां॒ दंसां॑स्यश्विना॒ विप्रा॑सः परिमामृ॒शुः । ए॒वेत्का॒ण्वस्य॑ बोधतम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ye vāṁ daṁsāṁsy aśvinā viprāsaḥ parimāmṛśuḥ | evet kāṇvasya bodhatam ||

पद पाठ

ये । वा॒म् । दंसां॑सि । अ॒श्वि॒ना॒ । विप्रा॑सः । प॒रि॒ऽम॒मृ॒शुः । ए॒व । इत् । का॒ण्वस्य॑ । बो॒ध॒त॒म् ॥ ८.९.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:9» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:30» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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शिव शंकर शर्मा

राजकर्त्तव्य कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे अश्विद्वय हे अश्वयुक्त राजा और राज्ञी ! (वाम्) आप दोनों के (दंसांसि) विविध शुभकर्मों को (ये+विप्रासः) जो मेधावी विद्वज्जन (परि+मामृशुः) गाते हैं, उन सबमें प्रथम (काण्वस्य+एव+इत्) तत्त्वविद् पुरुष को ही (बोधतम्) आप स्मरण रक्खें। क्योंकि तत्त्वविद् पुरुष सर्वश्रेष्ठ हैं, उनकी रक्षा प्रथम कर्त्तव्य है ॥३॥
भावार्थभाषाः - प्रजाहितचिन्तक राजाओं के यशों को सब ही गाते हैं, इसमें सन्देह नहीं, किन्तु तत्त्ववित् पुरुष राज्य के गुण-दोष जानते हैं और जानकर उनका संशोधन करते हैं। नए-२ अभ्युदय के उपाय नृपों को दिखलाते हैं। इस हेतु बहूपकारक होने से वे प्रथम सर्व प्रकार के सम्मान के योग्य हैं ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे व्यापक बलवाले ! (ये, विप्रासः) जो विद्वान् (वाम्, दंसांसि) आपके कर्मों का (परिमामृशुः) परिचरण करते हैं (काण्वस्य) विद्वानों के कुल में उत्पन्न हुए हम लोगों को भी (एव, इत्) उसी प्रकार (बोधतम्) जानना ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे बलसम्पन्न सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! जिस प्रकार आप विद्वानों का पालन, पोषण तथा रक्षण करते हैं, उसी प्रकार विद्वानों के कुल में उत्पन्न हम लोगों की भी रक्षा करें, जिससे हम लोग वेदविद्या के सम्पादन द्वारा याज्ञिक कर्मों में प्रवृत्त रहें ॥३॥
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शिव शंकर शर्मा

राजकर्त्तव्यमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अश्विना=अश्विनौ राजानौ ! वाम्=युवयोः। दंसांसि=शुभानि कर्माणि। ये विप्रासः=विप्रा मेधाविनो जनाः। परिमामृशुः=परिमृशन्ति गायन्तीत्यर्थः। तेषां मध्ये काण्वस्य=तत्त्ववेत्तुः पुरुषस्य। एवेत्=काण्वस्यैव। बोधतम्=प्रथमं काण्वमेव स्मरतमित्यर्थः ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे अश्विनौ ! (ये, विप्रासः) ये मेधाविनः (वां, दंसांसि) युवयोः कर्माणि (परिमामृशुः) परिचरन्ति (काण्वस्य) विद्वत्कुलोत्पन्नस्य ममापि (एव, इत्) एवमेव (बोधतम्) जानीतम् ॥३॥