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प्र बो॑धयोषो अ॒श्विना॒ प्र दे॑वि सूनृते महि । प्र य॑ज्ञहोतरानु॒षक्प्र मदा॑य॒ श्रवो॑ बृ॒हत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra bodhayoṣo aśvinā pra devi sūnṛte mahi | pra yajñahotar ānuṣak pra madāya śravo bṛhat ||

पद पाठ

प्र । बो॒ध॒य॒ । उ॒षः॒ । अ॒श्विना॑ । प्र । दे॒वि॒ । सू॒नृ॒ते॒ । म॒हि॒ । प्र । य॒ज्ञ॒ऽहो॒तः॒ । आ॒नु॒षक् । प्र । मदा॑य । श्रवः॑ । बृ॒हत् ॥ ८.९.१७

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:9» मन्त्र:17 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:33» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:17


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शिव शंकर शर्मा

राजा और अमात्यादिकों को भी प्रातःकाल जागना उचित है, यह शिक्षा इससे देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - यहाँ आरोप करके वर्णन है। (उषः) हे उषा देवि ! प्रातःकाल तू (अश्विना) हमारे राजा और अमात्यादिकों को (प्र+बोधय) उठाओ, प्रातःकाल ही जगाओ। (देवि) हे दीप्यमाना (सूनृते) हे अच्छी नायिके (महि) हे महती देवि ! तू अश्विद्वय को (प्र) अपने समय में उठा (यज्ञहोतः) हे शुभ कर्मों के करनेवाले विद्वान् ! आप भी (आनुषक्) सदा प्रातःकाल (प्र) उठा करें और अन्य को उठावें और उठकर (मदाय) आनन्दप्राप्ति के लिये परमेश्वर का (बृहत्+श्रवः) बहुत यशोगान कीजिये ॥१७॥
भावार्थभाषाः - क्या राजा क्या प्रजा, सब ही प्रातःकाल उठकर ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करें ॥१७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उषः) हे उषादेवि ! (अश्विना) आप सेनाध्यक्ष तथा सभाध्यक्ष को (प्रबोधय) स्वोत्पत्तिकाल में प्रबोधित करें (देवि) हे देवि ! (सूनृते) सुन्दरनेत्री (महि) महत्त्वविशिष्ट (प्र) प्रबोधित करें (यज्ञहोतः) हे यज्ञों की प्रेरणा करनेवाली (आनुषक्) निरन्तर (प्र) प्रबोधित करें (मदाय) हर्षोत्पत्ति के लिये (बृहत्, श्रवः) बहुत धन को (प्र) प्रबोधित करें ॥१७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि प्रत्येक श्रमजीवी उषाकाल में जागकर स्व-स्व कार्य्य में प्रवृत्त हों। उषाकाल में प्रबुद्ध पुरुष को विद्या, ऐश्वर्य्य, हर्ष, उत्साह तथा नीरोगतादि सब महत्त्वविशिष्ट पदार्थ प्राप्त होते हैं ॥१७॥
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शिव शंकर शर्मा

राजामात्यादिभिरपि प्रातर्जागरितव्यमित्यनया शिक्षते।

पदार्थान्वयभाषाः - चेतनत्वमारोप्य वर्णनमिदम्। हे उषः=हे उषे देवि ! त्वमस्माकं राजानौ ! अश्विना=अश्विनौ। सदा। प्रबोधय=प्रातःकाले जागरय। हे देवि=दिव्यरूपे ! हे सूनृते=सुष्ठुनेत्रि ! हे महि=महति। त्वं सर्वदा अश्विनौ। प्रबोधय। हे यज्ञहोतः=यज्ञानां शुभकर्मणां होतः कर्तः। त्वमपि। आनुषक्=सततं प्रबोधय। त्वमपि प्रातरेव उत्तिष्ठ। मदाय=आनन्दप्राप्तये ईश्वरस्य। बृहत्=महत्। श्रवः=कीर्तिं प्रणय ॥१७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उषः) हे उषः (अश्विना) सेनाध्यक्षसभाध्यक्षौ ! (प्रबोधय) प्रबोधितौ कुरु (देवि) हे देवि (सूनृते) हे सुनेत्रि ! (महि) महति (प्र) तौ प्रबोधय (यज्ञहोतः) हे यज्ञप्रयोजिके ! (आनुषक्) स्वस्मिन् निरन्तरं (प्र) प्रबोधय (मदाय) हर्षाय (बृहत्, श्रवः) बहु धनम् (प्र) प्रबोधय ॥१७॥