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यन्ना॑सत्या परा॒वति॒ यद्वा॒ स्थो अध्यम्ब॑रे । अत॑: स॒हस्र॑निर्णिजा॒ रथे॒ना या॑तमश्विना ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yan nāsatyā parāvati yad vā stho adhy ambare | ataḥ sahasranirṇijā rathenā yātam aśvinā ||

पद पाठ

यत् । ना॒स॒त्या॒ । प॒रा॒ऽवति॑ । यत् । वा॒ । स्थः । अधि॑ । अम्ब॑रे । अतः॑ । स॒हस्र॑ऽनिर्निजा । रथे॑न । आ । या॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥ ८.८.१४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:8» मन्त्र:14 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:27» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:14


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शिव शंकर शर्मा

राजकर्म कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे असत्यरहित (अश्विना) हे अश्वयुक्त राजा और अमात्य ! आप दोनों (यद्) यदि (परावति) दूर देश में (स्थः) हों (यद्वा) अथवा (अम्बरे+अधि) समीप में हों, जहाँ हों (अतः) वहाँ से (सहस्रनिर्णिजा) विविध भूषणों से युक्त (रथेन) रथ से (आयातम्) रक्षार्थ यहाँ आवें ॥१४॥
भावार्थभाषाः - राजा कदापि भी मिथ्या व्यवहार न करे, असत्य न बोले, सर्वदा प्रतिज्ञा का पालन करे, अपने व्यापार से कदापि प्रमाद न करे और विविध अलङ्कारों से भूषित रथ पर बैठकर राज्यकार्यों के देखने के लिये बाहर जाया करे ॥१४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे सत्यवादिन् (यत्) यदि आप (परावति) दूरदेश में (यद्, वा) अथवा (अध्यम्बरे) अन्तरिक्षप्रदेश में (स्थः) हों (अश्विना) हे व्यापकशक्तिवाले ! (अतः) इन सब स्थानों से (सहस्रनिर्णिजा, रथेन) अनेकरूपवाले यान द्वारा (आयातम्) आवें ॥१४॥
भावार्थभाषाः - हे सत्यादि गुणसम्पन्न सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! आप चाहे कहीं भी क्यों न हों, कृपा करके सब स्थानों से अपने विचित्र यान द्वारा हमारे यज्ञ में आकर सुशोभित हों और हमें विविध विद्याओं का उपदेश करें ॥१४॥
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शिव शंकर शर्मा

राजकर्माण्याह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे नासत्या=नासत्यौ=असत्यरहितौ। अश्विना=अश्वयुक्तस्तौ देवौ राजामात्यौ ! यद्=यदि युवाम्। परावति=दूरे देशे स्थो वर्तेथे। यद्वा। अम्बरे निकटे स्थः। अम्बरमिति अन्तिकनाम। अधिः सप्तम्यर्थानुवादी। कुत्रापि युवां भवथः। अतोऽस्मात् स्थानात्। युवाम्। सहस्रनिर्णिजा=अनेकरूपेण विविधालङ्कारयुक्तेन। निर्णिगिति रूपनाम। रथेन=रमणीयेन वाहनेन। आयातमागच्छतम् ॥१४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे सत्यवादिनौ ! (यत्) यदि (परावति) दूरदेशे (यत्, वा) यद्वा (अध्यम्बरे) अन्तरिक्षे (स्थः) वर्तेथे (अश्विना) हे व्यापकौ ! (अतः) अतः सर्वत एव (सहस्रनिर्णिजा, रथेन) सहस्ररूपेण यानेन (आयातम्) आगच्छतम् ॥१४॥