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सृ॒जन्ति॑ र॒श्मिमोज॑सा॒ पन्थां॒ सूर्या॑य॒ यात॑वे । ते भा॒नुभि॒र्वि त॑स्थिरे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sṛjanti raśmim ojasā panthāṁ sūryāya yātave | te bhānubhir vi tasthire ||

पद पाठ

सृ॒जन्ति॑ । र॒श्मिम् । ओज॑सा । पन्था॑म् । सूर्या॑य । यात॑वे । ते । भा॒नुऽभिः॑ । वि । त॒स्थि॒रे॒ ॥ ८.७.८

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:7» मन्त्र:8 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:19» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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शिव शंकर शर्मा

प्राणायाम का फल कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जो मरुत् अर्थात् आभ्यन्तर प्राण (सूर्य्याय) सूर्य्यदैवत नयन के स्वविषय में (यातवे) चलने के लिये (ओजसा) बलपूर्वक (रश्मिम्) ज्योति तथा (पन्थाम्) गति (सृजन्ति) पैदा करते हैं (ते) वे (भानुभिः) दीप्ति के साथ (वि+तस्थिरे) विराजमान हैं ॥८॥
भावार्थभाषाः - प्राणायाम करने से प्रत्येक इन्द्रिय में स्व-स्व प्रकाश की वृद्धि होती है। नयन यहाँ उपलक्षणमात्र है। प्राण स्वयं प्रकाशवान् वस्तु हैं, उनमें अधिक बल है, जैसे बाह्य वायु में देखते हैं। सूर्य=ऐसे-२ स्थल में सूर्य्य शब्द से नयन का ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि प्राणायाम का विषय है, इस शरीर में मानो, नयन सूर्य्य है, यदि सूर्य्य न हो तो नेत्र व्यर्थ हो जाय, इत्यादि अर्थ पर यहाँ ध्यान देना चाहिये ॥८॥
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आर्यमुनि

अब सम्राट् का महत्त्व कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) वे योद्धा लोग (सूर्याय, यातवे) सूर्यसदृश सम्राट् के जाने के लिये (ओजसा) अपने पराक्रम से (रश्मिम्, पन्थाम्) प्रकाशयुक्त मार्ग को (सृजन्ति) बना देते हैं (भानुभिः) और अपने तेजों से (वितस्थिरे) अधिष्ठाता बन जाते हैं ॥८॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार सूर्य में प्रभामण्डल पड़ता है अर्थात् उसकी रश्मियें प्रभा से सूर्य के मुख को ढापे रहती हैं, इसी प्रकार जिस सम्राट् के स्वरूप को उसके सैनिकों का तेज देदीप्यमान हुआ आच्छादित करता है, वही सम्राट् प्रशंसनीय होता है ॥८॥
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शिव शंकर शर्मा

प्राणायामफलमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - ये आभ्यन्तरप्राणाः। सूर्याय=सूर्य्यस्य=सूर्य्यदैवतस्य चक्षुषः। यातवे=यातुम्=गन्तुम्। ओजसा=बलेन। रश्मिम्=ज्योतिः। पन्थाम्=गतिञ्च। सृजन्ति=उत्पादयन्ति। ते=मरुतः। भानुभिः=प्रकाशैः दीप्तिभिः। वितस्थिरे=विराजन्ते ॥८॥
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आर्यमुनि

अथ सम्राजो महत्त्वं कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) ते योधाः (सूर्याय, यातवे) सूर्यसदृशसम्राजो गमनाय (ओजसा) स्वपराक्रमेण (रश्मिम्, पन्थाम्) सप्रकाशं मार्गम् (सृजन्ति) निर्मान्ति (भानुभिः) स्वतेजोभिः (वितस्थिरे) अधिष्ठिताः ॥८॥