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स॒हो षु णो॒ वज्र॑हस्तै॒: कण्वा॑सो अ॒ग्निं म॒रुद्भि॑: । स्तु॒षे हिर॑ण्यवाशीभिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

saho ṣu ṇo vajrahastaiḥ kaṇvāso agnim marudbhiḥ | stuṣe hiraṇyavāśībhiḥ ||

पद पाठ

स॒हो इति॑ । सु । नः॒ । वज्र॑ऽहस्तैः । कण्वा॑सः । अ॒ग्निम् । म॒रुत्ऽभिः॑ । स्तु॒षे । हिर॑ण्यऽवाशीभिः ॥ ८.७.३२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:7» मन्त्र:32 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:24» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:32


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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रियों के वशीकरण का फल कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (कण्वासः) हे स्तुतिपाठक विद्वज्जनो ! (वज्रहस्तैः) जो महादण्डधारी और (हिरण्यवाशीभिः) सुवर्णमयी वाशीसहित (मरुतैः) मरुद्गण अर्थात् प्राणगण हैं, उनके (सह+उ+सु) साथ ही विद्यमान (अग्निम्) परमात्मा या जीवात्मा की (स्तुषे) जैसे मैं स्तुति करता हूँ, आप लोग भी वैसा करें ॥३२॥
भावार्थभाषाः - जब समाधि आदि योगाभ्यास से ये इन्द्रियगण विषय से निवृत्त होकर ईश्वराभिमुख होते हैं, तब इनके निकट कोई पाप नहीं आते। उस समय कहा जाता है कि मानो ये इन्द्रियगण अपनी रक्षा के लिये हाथों में महादण्ड रखते हैं और देदीप्यमान वाशी (वसूला) से युक्त रहते हैं। इस अवस्था में प्राप्त आत्मा की स्तुति उपासक करते हैं ॥३२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (कण्वासः) हे विद्वानो ! आप (मरुद्भिः) योद्धाओं के (सहो) साथ (नः) हमारे (अग्निम्) अग्निसदृश सम्राट् की (सु, स्तुषे) सुन्दर रीति से स्तुति करें, जो योद्धा लोग (वज्रहस्तैः) हाथ में वज्रसदृश शस्त्र तथा (हिरण्यवाशीभिः) सुवर्णमय यष्टि वा शस्त्रिकाओं को लिये हुए हैं ॥३२॥
भावार्थभाषाः - जिस सम्राट् के उक्त आपत्काल में भी त्याग न करनेवाले आज्ञाकारी योद्धा हैं, वह सदैव सूर्य्य के समान देदीप्यमान रहता है अर्थात् उसके राज्यश्रीरूप प्रकाश को कदापि कोई दबा वा छिपा नहीं सकता ॥३२॥
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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रियवशीकरणफलमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे कण्वासः=हे कण्वाः स्तुतिपाठका विद्वांसो मनुष्याः। वज्रहस्तैः=दण्डपाणिभिः। पुनः। हिरण्यवाशीभिः= हिरण्मयी=सुवर्णमयी। वाशी=तक्षणसाधनं येषामिति तैः। ईदृशैः। मरुद्भिः प्राणैः। सह+उ+सु=सहैव विद्यमानम्। अग्निं परमात्मानं जीवात्मानं वा। अहम्। स्तुषे=स्तौमि। तथा यूयमपि स्तुध्वम् ॥३२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (कण्वासः) हे विद्वांसः ! (नः, मरुद्भिः) मम योद्धृभिः (सहो) सह (अग्निम्) अग्निसदृशं सम्राजम् (वज्रहस्तैः) तीक्ष्णशस्त्रहस्तैः (हिरण्यवाशीभिः) स्वर्णमयशस्त्रैः (सु, स्तुषे) साधु स्तुध्वम् ॥३२॥