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अनु॑ त्रि॒तस्य॒ युध्य॑त॒: शुष्म॑मावन्नु॒त क्रतु॑म् । अन्विन्द्रं॑ वृत्र॒तूर्ये॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anu tritasya yudhyataḥ śuṣmam āvann uta kratum | anv indraṁ vṛtratūrye ||

पद पाठ

अनु॑ । त्रि॒तस्य॑ । युध्य॑तः । शुष्म॑म् । आ॒व॒न् । उ॒त । क्रतु॑म् । अनु॑ । इन्द्र॑म् । वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑ ॥ ८.७.२४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:7» मन्त्र:24 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:22» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:24


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - पुनः मरुद्गण के कर्म कहे जाते हैं। वे मरुत् (त्रितस्य) भूमि, अन्तरिक्ष और द्युलोक में व्याप्त और (युध्यतः) स्वव्यापार में लगे हुए अग्नि के (शुष्मम्) बल की (अनु+आवन्) अनुकूलता के साथ रक्षा करते हैं (उत) और (क्रतुम्) अग्नि की सत्ता की भी रक्षा करते हैं। तथा (वृत्रतूर्ये) विघ्नों के साथ संग्राम में (इन्द्रम्+अनु) सूर्य को भी साहाय्य पहुँचाते हैं ॥२४॥
भावार्थभाषाः - अग्नि का भी सहायक वायु होता है और सूर्य्य का भी, विज्ञानशास्त्र के अध्ययन से इस विषय को जानो ॥२४॥
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आर्यमुनि

अब उन योद्धाओं का अपने सब कामों में जागरूक होना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रतूर्ये) असुरों के संग्राम में (युध्यतः, त्रितस्य, अनु) युद्ध करते हुए तीन सेनाओं के अधिपति के पीछे (शुष्मं, आवन्) उसके बल की रक्षा करते (उत) और साथ ही (क्रतुम्) राष्ट्रकर्म की भी रक्षा करते तथा (इन्द्रम्) सम्राट् को (अनु) सुरक्षित रखते हैं ॥२४॥
भावार्थभाषाः - ये अग्रणी विद्वान् योद्धा संग्राम में युद्ध करते हुए पिछले तीसरे मण्डल की रक्षा करते और सम्राट् को भी सुरक्षित रखते हुए राष्ट्र की रक्षा करते हैं, जिससे वे कृतकार्य्य होकर राष्ट्र को मङ्गलमय बनाते हैं ॥२४॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - त्रितस्य=त्रिततस्य=त्रिषु स्थानेषु भूमौ, अन्तरिक्षे दिवि च ततस्य व्याप्तस्य। युध्यतः=स्वकार्य्ये व्याप्रियमाणस्य। अग्नेः=शुष्मम्=बलम्। अन्वावन्=अन्वरक्षन्=आनुकूल्येन रक्षन्ति। उत=अपि च। क्रतुम्=कर्म=सत्ताञ्च। ते रक्षन्ति। पुनः। वृत्रतूर्य्ये=वृत्राणाम्=विघ्नानाम्। तूर्य्ये=संग्रामे। इन्द्रम्=सूर्य्यं च। अन्ववन्ति ॥२४॥
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आर्यमुनि

अथ तेषां जागरूकत्वं वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रतूर्ये) असुरसंग्रामे (युध्यतः, त्रितस्य, अनु) युद्धं कुर्वतः सेनात्रयाधिपस्य पश्चात् (शुष्मम्, आवन्) तस्य बलं रक्षन्ति (उत) अथ च (क्रतुम्) तदीयं राष्ट्रकर्म च रक्षन्ति (इन्द्रम्) सम्राजं च (अनु) अनुरक्षन्ति ॥२४॥