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अव॑ स्वराति॒ गर्ग॑रो गो॒धा परि॑ सनिष्वणत् । पिङ्गा॒ परि॑ चनिष्कद॒दिन्द्रा॑य॒ ब्रह्मोद्य॑तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ava svarāti gargaro godhā pari saniṣvaṇat | piṅgā pari caniṣkadad indrāya brahmodyatam ||

पद पाठ

अव॑ । स्व॒रा॒ति॒ । गर्ग॑रः । गो॒धा । परि॑ । स॒नि॒स्व॒न॒त् । पिङ्गा॑ । परि॑ । च॒नि॒स्क॒द॒त् । इन्द्रा॑य । ब्रह्म॑ । उत्ऽय॑तम् ॥ ८.६९.९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:69» मन्त्र:9 | अष्टक:6» अध्याय:5» वर्ग:6» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:9


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - (वज्रिणे) दण्डधारी (इन्द्राय) उस इन्द्र के लिये (गावः) ये पृथिव्यादिलोक (आशिरम्) पुष्टिकर (मधु+दुदुह्रे) मधु दे रहे हैं। (यत्) जिस मधु को (उपह्वरे) समीप में ही (सीम्) सर्वत्र वह (विदत्) पाता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - इसका आशय यह है कि जिस परमात्मा की प्रीति के लिये मानो ये सम्पूर्ण जगत् ही अपना-अपना स्वत्व दे रहे हैं और ईश्वर सर्वत्र व्यापक होने के कारण वह वहाँ ही उसे पा भी रहा है, तब स्वल्प मनुष्य उसको क्या दे सकेगा। तथापि हे मनुष्यों ! तुम्हारे निकट जो कुछ हो, उसकी प्रीत्यर्थ उसको दो ॥६॥
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! वज्रिणे=दण्डधराय। इन्द्राय। इमाः। गावः=पृथिव्यादिलोकाः। आशिरं=पुष्टिकरम्। मधु+ दुदुह्रे=दुहते। समर्पयन्ति। यन्मधु। सः। उपह्वरे=समीपे एव। सीम्=सर्वतः। विदत्=प्राप्नोति ॥६॥