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प॒रोमा॑त्र॒मृची॑षम॒मिन्द्र॑मु॒ग्रं सु॒राध॑सम् । ईशा॑नं चि॒द्वसू॑नाम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

paromātram ṛcīṣamam indram ugraṁ surādhasam | īśānaṁ cid vasūnām ||

पद पाठ

प॒रःऽमा॑त्रम् । ऋची॑षमम् । इन्द्र॑म् । उ॒ग्रम् । सु॒ऽराध॑सम् । ईशा॑नम् । चि॒त् । वसू॑नाम् ॥ ८.६८.६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:68» मन्त्र:6 | अष्टक:6» अध्याय:5» वर्ग:2» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:6


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे ईश ! (महः) महान् और महातेजस्वी (यस्य+ते) जिस तेरे (हस्ता) हाथ (महिना) अपने महत्त्व से (वज्रम्) नियमरूप दण्ड (परि+ईयतुः) को धारण किए हुए हैं, जो वज्र (ज्मायन्तम्) सर्वव्यापक है और (हिरण्ययम्) जो हित और रमणीय है ॥३॥
भावार्थभाषाः - ज्मायन्तम्=ज्मा=पृथिवी। यहाँ यह शब्द उपलक्षक है अर्थात् केवल पृथिवी पर ही नहीं कि जो सर्वत्र व्यापक है। वज्र=संसार में जो ईश्वरीय नियम व्यापक है, उसी को वेद में वज्र और अद्रि आदि कहते हैं। उन ही नियमों से सब अनुग्रह और निग्रह पा रहे हैं। हस्त=उसके हाथ पैर, देह आदि नहीं है, तथापि मनुष्य के बोध के लिये इस प्रकार का वर्णन आता है। विश्वतश्चक्षुरुत ॥३॥
टिप्पणी: मन्त्र देखिये। भाव इसका यह है कि इस संसार में ईश्वर ने ऐसे नियम स्थापित किये हैं कि जिनको न पालने से प्राणी स्वयं दण्ड पाते रहते हैं। अतः हे नरो ! उसकी प्रार्थना करो और उसके नियमों को पालो ॥
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - महः=महतो महस्विनश्च। यस्य ते। हस्ता=हस्तौ ताविव कर्मशक्ती। महिना=महत्त्वेन। वज्रम्=नियमदण्डम्। परि+ईयतुः=प्राप्नुतः=धत्तः। कीदृशम्। ज्मायन्तम्। ज्मा पृथिवी। उपलक्षणमेतत्। सर्वव्याप्तम्। पुनः। हिरण्ययम्। हितं रमणीयं च ॥३॥